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आत्मा का खजाना
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मतिज्ञान के भेद
मतिज्ञान को चार मंजिले है, यानी उसके मुख्य भेद चार हैं ! ( १ ) अवग्रह, ( २ ) ईहा, ( ३ ) अवाय और ( ४ ) धारणा ।
अर्थको अर्थात जानने योग्य पदार्थ को ग्रहण करना अवग्रह है उसमें पहले व्यजन ( पौद्गलिक सामग्री ) ग्रहण होता है और फिर 'कुछ है' ऐसा अव्यक्त बोध होता है। यानी अवग्रह के भी व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह ऐसे दो भेद हैं। चक्षु और मन का व्यजनावग्रह नहीं होता, कारण कि वह अप्राप्यकारी है - अप्राप्यकारी माने वस्तु को प्राप्त किये बिना ही उसका बोध करनेवाला । चक्षु दूरस्थ वृक्ष, पर्वत, चन्द्र, सूर्य आदि को देख सकता है । मन यहीं बैठा हुआ दूर- सुदूर के विचार कर सकता है ।
'यह क्या है ?' ऐसा विचार ईहा है । 'यह अमुक वस्तु है' ऐसा निर्णय श्रवाय है, और उसका अवधारण करना स्मरण याद रखना धारणा है ।
आप कहेंगे कि, हम तो घोडे को देखते ही यह जान लेते हैं कि यह घोडा है । उसमे ये चार मंजिलें कैसे आती होंगी ? पर, ये अवश्य आती हैं । चिरपरिचित वस्तु में हमारा उपयोग अत्यन्त तीव्र गतिमान होने के कारण सब मजिलों का भान नहीं होता, लेकिन अगर कोई अनजानी चीज लें तो इसका भान बराबर होता है । मान लीजिए आप शाम के समय किसी खेत से होकर गुजर रहे हैं । वहाँ दूर पर कुछ दिखायी देता है । आप उसे देखते हुए विचार करते हैं कि 'यह क्या है ? यह किसी पेड का ठूंठ है या आदमी ?' फिर आप यह विचार करते हैं कि 'मनुष्य होता तो कुछ हिलन चलन होती । दूसरे, इसका ऊपर का भाग नीचे के भाग से परिमाण में छोटा होता, जब कि यह तो बिलकुल स्थिर जान पड़ता है और इसका ऊपर का भाग नीचे के भाग से परिमाण में कुछ