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पाँचवाँ व्याख्यान
आत्मा की अखण्डता
महानुभावो!
श्री उत्तराध्ययन-सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन का आत्मा का विषय आगे चलता है । आज आत्मा की अखण्डता के विषय में विवेचन करना है। इस विषय को पसन्द करने का कारण यह है कि, आत्मा की अमरता और आत्मा की अखण्डता का निकट सम्बन्ध है । अगर आत्मा की अखण्डता दिल में न बसी, तो आत्मा की अमरता भी दिल में नहीं बसनेवाली है;
और आत्मा की अमरता दिल में न बसी तो स्थिति चार्वाको-जैसी ही होगी। अगर आत्मा रहनेवाला नहीं है, तो पाप-पुण्य का फल किसको भोगना है ? और, पाप-पुण्य का फल न भोगना हो, तो उसका विवेक करने का क्या प्रयोजन है ? इसलिए, आत्मा नित्य है, अमर है, यह बात अंतर के अणु-अणु में बैठाने की आवश्यकता है। उसकी पुष्टि के लिए ही आज यह विषय चुना गया है।
अखण्ड की व्याख्या
"अखण्ड' किसे कहते है ?"—पहले यह विचार लें। जिसके 'खण्ड' अर्थात् टुकड़े न हो सके, उसे 'अखण्ड' कहते है । विशेष रूप से कहे तो जिस वस्तु के एक, दो, तीन या न्यूनाधिक रूप में, परिमाण में, आकार में या अन्य संभाव्य प्रकारी में किसी भी क्रिया से टुकडे न हो सके, उसे 'अखण्ट' कहते है।