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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
बनारसीदास निश्चित रूप से कवीर से प्रभावित थे। कबीर की अनेक मान्यताओं और विचारधाराओं को बनारसीदास ने स्वीकार किया और जिस चरम सत्य का अनुभव किया, उसको निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से व्यक्त कर दिया। (इस स्पष्टवादिता के कारण आपको अनेक जैन विद्वानों का कोप भाजन भी बनना पड़ा था।) कवीर के ही समान आपने हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया और बाह्याडम्बर का विरोध किया। उनका कहना था कि :
एक रूप 'हिन्दू तुरुक' दूजी दशा न कोय ।
___ मन की द्विविधा मानकर, भए एक सो दोय ॥७॥ दोऊ भूलेभरम में, करें वचन की टेक ।
'राम राम' हिन्दू करें, तुर्क 'सलामालेक' ॥८॥ इनके पुस्तक वांचिए, बेहू पड़े कितेब ।
एक वस्तु के नाम द्वय जैसे 'शोभा' 'जेब' ॥६॥ तिनको द्विविधा जे लखे, रंग विरंगी चाम । मेरे नैनन देखिए घट घट अन्तर राम ॥१०॥
(बना० वि०, पृ० २०४) कबीर के ही समान आपके राम 'दशरथ सुत' से भिन्न हैं, घट-घट में परिव्याप्त हैं। साधक ही उनका दर्शन कर पाते हैं। बनारसीदास का विश्वास था कि राम ने कभी अवतार नहीं लिया, रावण का वध नहीं किया। 'रामायण' तो घट के अन्दर ही विद्यमान है, किन्तु उसका ज्ञान मर्मी पुरुषों को ही होता है। 'आत्मा' ही राम है। विवेक रूपी लक्ष्मण और सुमति रूपी सीता उसके साथी हैं। शुद्धभाव रूपी वानरों की सहायता से वह रणक्षेत्र में उतरता है, ध्यान
दी धन की टंकार से विषय वासनाएं भागने लगती हैं और धारणा की अग्नि से मिथ्यात्व की लंका भस्म हो जाती है, जिससे अज्ञान रूपी राक्षस कुल का नाश होता है । राग-द्वेप रूपी सेनापति युद्ध में मारे जाते हैं, संशय का गढ़ टूट जाने पर कुम्भकरण रूपी भव विलखने लगता है। सेतुबन्धरूपी समभाव के पश्चात् अहिगवण भी नष्ट हो जाता है, जिससे मन्दोदरी रूपी दुराशा मच्छित हो जाती है। चश्मदर्शन की शक्ति को देखकर विभीषण का उदय
मुमति कोकिला गहगही हो, बही अपूरव वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाड़ो जड़ ताउ । अध्या० ॥३॥ सुरति अग्नि ज्वाला जगी हो, म्मकित भानु अमन्द । हृदय कमल विकसित भी हो, प्रगट मुजस मकरंद || अध्या०||७|| परम ज्योति परगट भई हो. लगी होलिका याग। श्राट काठमय जरिबके हो, गाई नन ई भाग ॥१६॥
(बनारसी विलास, पृ० १५५)