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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद बनारसी कृत मान लिया है। बनारसीदास तो सं० १७५० में जीवित भी नहीं थे। 'ज्ञान पच्चीसी' और 'शिव पच्चीसी' सं० १७०१ के पूर्व की रचनाएँ हैं। 'वेदान्त अष्टाचक्र' किसी अन्य कवि की रचना है।
काव्य-शक्तिः
'घट-घट अन्तर राम' की अलख जगाने वाले वनारसीदास जैन परम्परा में कवीरदास के समान श्रद्धा की दष्टि से देखे जाते हैं। जैन धर्म के नीरस और शुष्क उपदशा तक ही अपने को सीमित न कर आपने जीवात्मा और परमात्मा के मधुर सम्बन्ध का भी सरस वर्णन किया है। उन्होंने आत्मा के स्वरूप को, विश्व की स्थिति को, परमात्म-दर्शन और मिलन के उपाय को बड़े ही मनोरम ढंग से अभिव्यक्त किया है। 'बनारसी विलास' की कुछ रचनाएँ सुभाषित तथा जैन धर्म सिद्धान्त मे सम्बन्धित होने पर भी शेप अध्यात्म तत्व एवं रहस्यवाद से परिपूर्ण हैं। आप गिव तत्व एवं जीव तत्व की अद्वैतता के पोषक हैं। आपका स्पष्ट मत है कि जो शिव के महत्व को जान लेता है, वह स्वयं अविनाशी शिव हो जाता है, क्योंकि जीव और शिव अन्य पदार्थ नहीं हैं। जीव और शिव एक ही वस्तु के दो नाम हैं। व्यावहारिक दृष्टि से जो जीव है, पारमार्थिक दृष्टि से वही शिव है।
शिव महिमा जाके घट बसी। सो शिव रूप हुआ अविनासी ॥ ३॥ जीव और शिव और न होई । सोई जीव वस्तु शिव सोई ।। जीव नाम कहिए व्यवहारी। शिवस्वरूप निहचे गुणधारी ॥४॥
(बनारसी विलास, पृ० १४६) किन्तु इस तथ्य की जानकारी हेतु जीव को कुछ प्रायास करना पड़ता है। वह शरीर रूपी मण्डप में स्थित मन रूपी वेदी को गुभभाव रूपी सफेदी से स्वच्छ कर, भावलिंगरूपी मूर्ति की स्थापना कर, निरंजन देव की आराधना करे, उसे समरस रूपी जल मे अभिपिक्त करावे, उपशम रूपी चन्दन लगावे, सहजानन्द रूपी पुष्पों की गुणगर्भित जयमाल चढ़ावे ! इस विधान के सम्पन्न होने पर साधक स्वयं शिवरूप हो जाता है। साधक और शिव की अद्वैत अवस्था कैसे उपस्थित होती है ? माधक की करुण रसमयी वाणी ही शंकर के सिर पर स्थित देवनदी गंगा' बन जाती है, सुमति अर्धाङ्गिनी 'गौरी' का रूप धारण कर लेती हैं. त्रिगुण भेद त्रिनेत्र' का, सम्यक भाव 'चन्द्र लेखा' का, सद्गुरू की शिक्षा 'सिंगी' का और व्यवहारनय ‘मृगचर्म' का कार्य करते हैं। जीव विवेक के वैल पर आरूढ़ हो 'कैलाश' में विचरण करने लगता है, संयम की जटाएँ धारण करके, महजसूख का उपभोग करते हए दिगम्बर योगी के समान समाधि में पान लगाता है और अनाहदम्पी 'डमरू' का नाद मनता है।