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तृतीय खण्ड में सिद्धान्त विवेचन है। इसमें चार अध्याय हैं। चौथे अध्याय में नय-द्वय पर विचार किया गया है। जैन दर्शन व्यवहार-नय और निश्चयनय नामक दो नयों में विश्वास करता है। व्यवहार-नय या बाह्य दृष्टि से पदार्थों में जो भेद और अनेकता दिखाई पड़ती है, निश्चय-नय या पारमार्थिक दष्टि से उसी में एकत्व की प्रतीति होने लगती है। व्यावहारिक दृष्टि से जीव पाप-पुण्य करता है, कर्म-बधन में फंसता है। लेकिन निश्चय-नय से आत्मा न पाप करता है और न पुण्य । वह न सत्कर्म में प्रवृत्त होता है और न दुष्कर्म में। पाँचवें अध्याय में द्रव्य व्यवस्था का विवेचन है। जैन दर्शन षड़द्रव्यों को मानकर चलता है। जीव चेतन द्रव्य है, शेप पाँच-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-अचेतन द्रव्य हैं। ये द्रव्य ही संसार की स्थिति और गति के कारण हैं। इनके वास्तविक स्वरूप को समझना साधक का प्रथम कर्तव्य है।
छठे अध्याय में जैन साधकों द्वारा आत्मा के स्वरूप-कथन पर विचार किया गया है। प्रात्मा का स्वरूप कैसा है ? अात्मा और शरीर में क्या अन्तर है? आत्मा की कितनो अवस्थाएं हैं? आत्मा और परमात्मा तथा आत्मा और कर्म में क्या सम्बन्ध हैं, इन प्रश्नों को इस अध्याय में उठाया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का वास शरीर में हो है, वह अनेक नामों से सम्बोधित किया जा सकता है तथा ब्रह्मानुभूतिजनित आनन्द अनिर्वचनीय है। जैन मान्यता के अनुसार परमात्मा नाम की कोई भिन्न सत्ता नहीं है। प्रात्मा ही कर्म-कलं -वियुक्त होकर परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक प्रात्मा परमात्मा बनने पर भी किसी दूसरी शक्ति में अन्तर्मुक्त नहीं हो जाता, अपितु उसका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार परमात्मा अनेक हैं।
सातवें अध्याय में मोक्ष अथवा परमात्मपद-प्राप्ति के साधनों की चर्चा की गई है। यतः प्रत्येक आत्मा ही परमात्मा बन सकता है, अतएव यह जानना मावश्यक है कि आत्मा परमात्मा कैले बन सकता है ? उसके माग में कौन-कौन से अवरोध हैं ? उनका प्रतिक्रमण कैसे सम्भव है ? मेरे विचार से अध्यात्म पथ के पथिक को एतदर्थ दो प्रमुग्व सोपानों को पार करना पड़ता है। प्रथमतः उमे सांमारिक पदार्थों की क्षणिकता का ज्ञान आवश्यक है। वह यह मान ले कि विषय मुख अन्ततः दुखदायो, अतएव त्याज्य हैं। अत: वह पचेन्द्रिय और मन पर नियन्त्रण प्राप्त करे, वाह्य अनुष्ठान की अपेक्षा अान्तरिक शद्धि पर जोर दे, पुस्तकीय ज्ञान की सीमाओं को जानकर अन्तर्ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान का सहारा ले तथा पाप-पुण्य दोनों को हानिकर समझते हुए, दोनों का परित्याग कर दे। दूसरे, मद्गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करे। वही गुरु जो अध्यात्म पथ पर जा चुका है, शिप्य को सच्चा रास्ता बता सकता है। वह गोविन्द से भी बड़ा है। गुरु महत्व के अतिरिक्त रत्नत्रय अर्यात् सम्यकदर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक्चरित्र की उपलब्धि भी आवश्यक है। चतुर्थ खण्ड में जैन रहस्यवाद और अन्य माधना मार्गों का तुलनात्मक अध्ययन है। इसके आठवें अध्याय में जैन काव्य और सिद्ध साहित्य की तुलना है। बौद्ध धर्म किस प्रकार महायान,