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अध्याय
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पूर्ण क्रिया हेमचन्द्र का जन्म सं० १९८५, दीक्षा सं० ११५४, सूरिपद सं० ११६६ और मृत्यु सम्बत् १२२६ माना जाता है। अतएव मुनि रामसिंह सं० ९९० और सं० ११४५ के मध्य में अर्थात् विक्रम की ११वीं शताब्दी में हुए होंगे । दोहा पाहुड़ का विषय :
मुनि रामसिह सच्चे साधक थे। उन्होंने उसी बात को मान्यता दी है, जो अनुभूति की कसौटी पर खरी उतरी है। उन्होंने न तो जेन आगमों और सिद्धान्तों का अन्धानुकरण ही किया है और न केवल उनकी हर वान का मण्डन ही किया है। जैनेतर शब्दावली और मान्यताओं को भी स्पर्श न करने की उन्होंने शपथ नहीं खाई थी। वे सच्चे रूप में सन्त थे और माधक को किसी एक पुरातन पद्धति, साधना अथवा विश्वास में बांधा नहीं जा सकता। वह तो जिम सत्य का साक्षात्कार करता है, अपनी वाणी में उसे व्यक्त कर देता है। वह चाहे किसी मत के अनुकूल हो या प्रतिकूल । इसीलिए 'दोहा पाहुड' में एक ओर जैन दर्शन में स्वीकृत आत्मा का स्वरूप, उसके पर्याय-भेद, सम्यक दर्शन, ज्ञान और चरित्र का वर्णन मिल जाता है, तो दूसरी ओर तत्कालीन दीव, शाक्त तथा बौद्ध योगियों और तात्रिकों की शब्दावली का प्रयोग भी दिखाई पड़ता है। कवि कभी सहज भाव की बात करता है, तो कभी सामरस्य अवस्था की अनुभूति करता हुआ दिखाई पड़ता है; कभी वि-शक्ति के अद्वय रूप की कल्पना करता है, तो कभी ब्रह्मानन्द का पान करता हुआ प्रतीत होता है; कभी रवि शशि की बात करता है, तो कभी बाम-दक्षिण को
जब कवि आत्मा के स्वरूप का वर्णन करने लगता है तो प्रतीत होता है कि वेदान्त की व्याख्या कर रहा है अथवा उसी भाषा में बोल रहा है। जैसे, आत्मा का वास शरीर में ही है, किन्तु वह शरीर से पूर्णतया भिन्न है। शरीर से उसका कोई सम्बन्ध नहीं वह 'पद्मपत्रैवाम्भसा' है आत्मा का कोई वर्ण नहीं, कोई रूप नहीं, कोई आकार नहीं । न वह गोरा है, न श्याम वर्ण का; न स्थूलाकार है, न दुर्बलांग । आत्मा न तरुण है, न वृद्ध; न बालक है और न वीर । आत्मा न वैदिक पण्डित है, न श्वेताम्बर जैन। वह नित्य है, निरंजन है, परमानन्दमय है, ज्ञानमय है तथा वही शिव है ।
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'परिवकमाई गाहाई संचिकण एयस्य । सिरिदेवसेण मुणिरणा चारा संवसंतेा ॥ ४६॥ श्री दंसणसारो हारो भव्वाण रावसए रावए । सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे महासुद्धदसमीए ५०||
देखिए - श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी - पुरानी हिन्दी, पृ० १३७ ।
ण विगोरउ ण वि सामलउ ण वि तुहुँ एक्कु वि वष्णु ।
णवित भंगड भूण वि पहउ जाथि सवराणु ||३०||
तरुणउ बूढउ बाल हउं सूरउ पंडिउ दिव्वु ।
खवण बंदर सेवड एहउ चिंति म सब्बु ||३२||
वण विहूणउ णाणमउ जो भावइ सम्भाउ । सन्तु णिरंज सो जि सिउ तहिं किजइ अणुराउ ||३८||