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तृतीय अध्याय
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ही लिखा है कि 'उच्चकोटि की रचनाओं में प्रयुक्त की जानेवाली संस्कृत तथा प्राकृत भाषा को छोड़कर योगीन्दु का उस समय की प्रचलित भाषा अपभ्रंश को अपनाना महत्व से खाली नहीं है। इस दृष्टि से वे महाराष्ट्र के सन्त ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ और रामदेव तथा कर्नाटक के बसवन्न आदि साधकों की कोटि में आते हैं, क्योंकि वे भी इसी प्रकार मराठी और कन्नड़ में अपनी अनुभूतियों को बड़े गर्व से व्यक्त करते हैं।"
(४) मुनि रामसिंह दोहापाहुड का कर्ता कौन ?
मूनि रामसिंह एक ऐसे कवि हैं, जिनका प्राविवि काल और परिचय तो अज्ञात है ही, उनके अस्तित्व के विषय में भी सन्देह है। उनके नाम से लिखित केवल एक ग्रन्थ 'पाहुड़दोहा या दोहापाहुड़ मिलता है। डा० हीरालाल जैन ने इसका सम्पादन करके सन् १९३२ में कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी (कारंजा, बरार) से प्रकाशित कराया था। आपको इसकी दो प्रतियाँ उपलब्ध हो सकी थीं-एक दिल्ली से और दूसरी कोल्हापुर से। इन प्रतियों में भिन्न-भिन्न दो लेखकों का नाम होने से ग्रन्थ के रचयिता का प्रश्न भी उपस्थित हो गया। दिल्लीवाली प्रति के अन्त में लिखा है 'इति श्री मुनि रामसिंह विरचिता पाहुड़दोहा समाप्तं ।' और कोल्हापुरवाली प्रति के अन्त में दिया हुआ है 'इति श्री योगेन्द्र देव विरचित दोहापाहुडं नाम ग्रंथं समाप्तं ।' पुस्तक के दोहा नं० २११ में भी रामसिंह का नाम पाया है।
ग्रन्थ की नई प्रति :
मुझे 'दोहापाहुड़' की एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के 'अामेर शास्त्र भांडार' के गुटका नं० ५४ से प्राप्त हुई है। यह एक बड़ा गुटका है। इसमें छोटी बड़ी८ रचनाएँ लिपिबद्ध हैं। प्रमुख रचनामों में 'षटपाहड़', 'परमात्म प्रकाश के दोहे', 'नेमिनाथरासो', 'स्वामी कुमारानुप्रेक्षा' और 'जोगसार के दोहे' आदि कहे जा सकते हैं। 'परमात्मप्रकाश के दोहे' के बाद 'दोहापाहड़' पृष्ठ २७९ से २८७ तक संग्रहीत हैं। इस प्रति की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :
(१) प्रकाशित ग्रन्थ के दो० नं० २० व २१ और २२ व २३ का इसमें क्रम उल्टा है।
१. परमात्मप्रकाश की भूमिका, पृ०२७ । २. 'अणुपेहा बारह बि जिय भावि वि एक्कमणेण ।
राममी हु मुणि इम भणइ सिवपुरि पावहि जेग ।।२११॥