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द्वितीय अध्याय
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'हिन्दी' का कवि बताते हैं ।' श्री ए० एन० उपाध्ये ने कई विद्वानों के तर्कों का सप्रमाण खंडन करते हुए योगीन्दु को ईसा की छठी शताब्दी का होना निश्चित किया है । 'योगीन्दु' के आविर्भाव संबंधी इतने मतभेदों का कारण, उनके सम्बन्ध में किसी प्रामाणिक तथ्य का प्रभाव है। श्री ए० एन० उपाध्ये को छोड़कर अन्य किसी ने न तो योगीन्दु पर विस्तार से विचार किया है और न अपनी मान्यता के पक्ष में कोई सबल तर्क ही उपस्थित किया है। किन्तु श्री उपाध्ये ने जो समय निश्चित किया है, उसको भी सहसा स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके दो कारण हैं । प्रथमतः योगीन्दु की रचनाओं में कुछ ऐसे दोहे मिलते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि वह सिद्धों और नाथों के विचारों से प्रभावित थे । वही शव्दावली, वही बातें, वही प्रयोग योगोन्दु की रचनाओं में पाये जाते हैं, जो वौद्ध, शैव, शाक्त यदि योगियों और तान्त्रिकों
प्राप्त होते हैं । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि अगर उनकी रचनाओं के ऊपर से 'जैन' विशेषण हटा दिया जाय तो वे योगियों और तान्त्रिकों की रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं लगेंगी। वे ही शब्द, वे ही भाव और
हो प्रयोग घूम फिर कर उस युग के सभी साधकों के अनुभवों में प्राया करते थे । इनके काव्य और सिद्ध साहित्य का श्रागे चलकर हम विस्तार से 'तुलनात्मक अध्ययन करेंगे, तब यह कथन और अधिक स्पष्ट हो जाएगा। किन्तु यहाँ पर इतना कह देना हम आवश्यक समझते हैं कि योगीन्दु तथा अन्य समकालीन सिद्ध, नाथ आदि 'आत्मतत्व' की उपलब्धि के सम्बन्ध में लगभग एक ही बात कहते दिखाई पड़ते हैं । कम से कम वाहयाचार का विरोध, चित्त शुद्धि पर जोर देना, शरीर को ही समस्त साधनाओं का केन्द्र समझना और समरसी भाव से स्वसंवेदन आनन्द का उपभोग वर्णन सभी कवियों में मिल जाते है ।
सिद्ध युग ईसा की आठवीं से ग्यारहवीं सदी तक माना जाता है और 'सरहपाद' आदि सिद्ध माने जाते हैं। राहुल जी के अनुसार आपकी मृत्यु सन् ७८० ई० के लगभग हुई थी। इसी शताब्दी से वौद्धधर्म ' हीनयान और महायान के विकास की चरम सीमा पर पहुंचकर अब एक नई दिशा लेने की तैयारी कर रहा था, जब उसे मन्त्रयान, वज्रयान, सहजयान की संज्ञा मिलने वाली थी और जिसके प्रथम प्रणेता स्वयं सरहपाद थे। इसके पश्चात् सिद्ध परम्परा में शबरपा, ( ७८० ई०) भुसुकपा, ( ८०० ई०) लुईपा, ( ८३०ई० ) विसपा, ( ८३०ई०) डोम्डिपा, ( ८४० ई० ) दारिकपा, ( ८४० ई० ) गुण्डरीपा, ( ८४० ई० ) कुक्कुरीपा, ( ८४० ई० ) कमरिपा,
कामता प्रसाद जैन — हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, फरवरी ११७, पृ० ५४
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श्री ए० ए० उपाध्ये, परमात्मप्रकाश की भूमिका, पृ०६७।
३. श्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी - मध्यकालीन धर्म साधना, पृ० ४४ ४. महापंडित राहुल सांकृत्यायन - दोहाकोप, पृ० ४ ।
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