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तृतीय अध्याय
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कार्तिकेय मुनि का एक ग्रन्थ 'कात्तिगेयाणुपेक्खा' मिलता है। इसको प्रस्तावना में एक गाथा दी हुई है। गाथा इस प्रकार है :कोहेण जो सम्पदि मुरणरतिरिएहिं करिमाणे वि । उवसग्गे विरउद्द्वे तस्स खिमा गिम्मला होदि ||६६४ ||
इनके नीचे लिखा है कि "उपर्युक्त गाथा से केवल इतना स्पष्ट होता है कि स्वामी कार्तिकेय मुनि क्रौंच राजा कृत उपसर्ग जीति देवलोक पाया" । किन्तु क्रौंच राजा कब हुआ ? और यह गाथा टीकाकार ने कहां से ली ? यह स्पष्ट नहीं होता । इस ग्रन्थ पर तीन टीकाओं का पता चलता है। प्रथम टीका वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता दिगम्बर जैन वाणभट्ट की है, दूसरी टीका पद्यनन्दी के प्राचार्य के पट्ट पर लिखित श्री शुभचन्द्राचार्य की है और तीसरी किसी अन्य विद्वान् द्वारा की हुई संस्कृत छाया है। इनमें शुभचन्द्र की टीका का समय सन् १५५६ ई० है, अन्य का टीका काल ज्ञात नहीं है। इस ग्रंथ की गाथा नं० २५ में प्रयुक्त "क्षेत्रपाल" शब्द के आधार पर श्री ए० एन० उपाध्ये ने अनुमान लगाया है कि कुमार कवि सम्भवतः दक्षिण प्रदेश में हुए थे । दक्षिण में इस नाम के कई व्यक्तियों का उल्लेख भी मिलता है। किन्तु किसी अन्य प्रामाणिक सामग्री के अभाव में इनके सम्बन्ध में निश्चित और अन्तिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता |
कार्तिकेयानुप्रेक्षा का विषय :
कार्तिकेयानुप्रेक्षा द्वादन अनुप्रक्षा में लिखी गई है। जैनों में अनुप्रक्षा का विशेष महत्व है । उनके द्वारा कई अनुप्रेक्षा ग्रन्थ लिखे भी गये हैं, जिनमें श्राचार्य कुन्दकुन्द, वट्टकेर ग्रोर शिवार्य के ग्रन्थों का विशेष महत्व है । 'ग्रनुप्रक्षा' का अर्थ होता है - 'वार-वार चिन्तन करना' । एक अनुप्र ेक्षा के अन्तर्गत एक हो विषय पर विस्तार से विचार किया जाता है | कार्तिकेयानुप्रेक्षा की बारह अनुक्षाओं का क्रम इस प्रकार
अधव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, ग्रास्रव, सर्वर, निर्जरा, लोक, दुर्लभ और धर्म ।
अध्रुवानुप्रेक्षा में संसार की नश्वरता का वर्णन है । कवि ने दृष्टान्तों और रूपकों द्वारा यह समझाया है कि संसार में जो वस्तु उत्पन्न हु है, उसका नियमत: विनाश होगा । जन्म के साथ मरण, युवावस्था के साथ वृद्धावस्था और लक्ष्मी के साथ विनाश जुड़े हुए हैं। परिजन, स्वजन, पुत्र, कलत्र, मित्र, लावण्य, गृह, गोधन आदि सभी कुछ नवीन मेघ के समान चंचल हैं। जिस प्रकार मार्ग में पथिकों का संयोग होता है, उसी प्रकार संसार में बन्धु बान्धवों का साथ अस्थिर है :
१. भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, श्याम बाजार कलकत्ता से प्रकाशित, प्र० श्रावृत्ति, वीर नि० सं० २४४७ |