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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
जयपूर) ने छीहल को रहस्यवादी कवि माना है, वह इसी रचना के आधार पर । आत्म प्रतिबोध जयमाल' अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। इस प्रकार टीहल ने विद्यापति के समान हिन्दी-अपभ्रंश दोनों को अपनाया। हिन्दी में-१७वीं शताब्दी के कवि :
विक्रम की १७वीं शताब्दी हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग है। इस शताब्दी में जहाँ पर एक ओर भक्त प्रवर गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, नन्ददास तथा अप्टछाप के अन्य कवि अपनी वाणी से भगवान के मर्यादा रूप, लीला रूप आदि का विशद चित्रण करते हैं, केशवदास जैसे कवि रीति प्रधान और अलंकार प्रधान काव्य रचना का श्रीगणेश करते हैं, वहाँ दूसरी ओर बनारसीदास, भगवतीदास, रूपचन्द और आनन्दघन आदि जैन-रहस्यवादी कवि अपनी आध्यात्मिक वाणी से हिन्दी का गौरव बढ़ाते हैं। बनारसीदास इस युग के ही श्रेष्ठ कवि नहीं, अपितु पूरे हिन्दी साहित्य में गौरवपूर्ण स्थान के अधिकारी हैं। आपकरूपक बड़े ही सबल, सरस और प्रभावशाली हैं। आपने आत्मा को प्रिया और परमात्मा को प्रियतम मान कर अलौकिक प्रेम का चित्रण किया है। 'श्री चूनड़ी' भगवती दास की महत्वपूर्ण रचना है। रूपचन्द, योगीन्दु मुनि का अनुसरण करने वाले कवि हैं। आनन्दघन १७वीं शताब्दी उत्तरार्ध के विशिष्ट मन्त और कवि हैं। सन्त साहित्य के प्रमुख अध्येता श्री क्षितिमोहन मेन आपकी वाणी से अत्यधिक प्रभावित प्रतीत होते हैं। आपने वीणा, सम्मेलनपत्रिका और विश्वभारती आदि पत्रिकाओं में 'जैन मर्मी आनन्दघन' नाम से कई लेख लिखकर आनन्दघन को कबीर का समान-धर्मा साधक सिद्ध किया है। 'आनन्दघन बहोत्तरी आपकी प्रसिद्ध रचना है। आपके ऊपर हटयोग साधना और कबीर के मत का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है।
१८वीं शताब्दी के कवि :
१८वीं शताब्दी में जहाँ एक ओर रीति काव्य लिखा जा रहा था और हिन्दी के अधिकांश कवि शृङ्गार रस के वर्णन में, नायक-नायिका-भेद के चित्रण में, नख-शिख, सखी-दूती की अवतारणा में और राजाओं, बादशाहों की हाँहजूरी और मिथ्या प्रशंमा में अपनी काव्य प्रतिभा का दुरुपयोग कर रहे थे तथा कविता को धनार्जन का श्रेष्ठतम साधन मानकर 'प्राकृत जन गुणगान' में ही कवि कर्तव्य की इति-श्री समझ रहे थे, वहाँ दूसरी ओर मुनि यशोविजय, पाण्डे हेमगज, भैया भगवतीदान और द्यानतराय आदि जैन कवि अनंग रंग और लक्ष्मी उपासना से विरत होकर एकान्त चिन्तना और अध्यात्म साधना में लीन थे। मुनि यशोविजय आनन्दघन के समकालीन थे और मेड़ता में आनन्दघन के माथ कुछ ममय तक रहे भी थे। आनन्दघन की साधना का आप पर काफी प्रभाव पड़ा था। 'ममाधितन्त' आपकी सुन्दर रचना है। इसको देख कर श्री मोतीलाल मेनारिया को भी भ्रम हो गया और उन्होंने अनुमान लगाया कि योनि कोई निरंजनी साधू रहे होंगे।