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तृतीय अध्याय
की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरितमानस भी साहित्य क्षेत्र में विवेच्य हो जाएगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। "बौद्धों, ब्राह्मणों और जैनों के अनेक आचार्यों ने नैतिक और धार्मिक उपदेश देने के लिए लोक कथाओं का आश्रय लिया था। भारतीय सन्तों को यह परम्परा परमहंस रामकृष्णदेव तक अविछिन्न भाव से चली आई है। केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य सीमा से बाहर निकालने लगेगे ' तो हमें आविकाव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी रामायण से भी अलग होना पड़ेगा, कबीर की रचनाओं को भी नमस्कार कर देना पड़ेगा और जायसी को भी दूर से दण्डवत् करके विदा कर देना होगा ।
रहस्यवादी काव्य रचना का आरम्भ
जैन कवियों का ध्यान अध्यात्म की ओर भी गया और आरम्भ से ही वे आत्मा परमात्मा, कर्म, मोक्ष आदि पर अपने विचार व्यक्त करते रहे। अनेक कवि उच्चकोटि के साधक भी हुए जिस प्रकार अपभ्रंश भाषा गिद्धों पीर नाथों की रहस्यमयी रचनाओं से गौरवान्वित है और जिस प्रकार कबीर, दादू, सुन्दर, रज्जब आदि सन्तों ने अपनी स्वानुभूतिमयी वाणियों से हिन्दी का अक्षय भांडार भरा है, उसी प्रकार जैन रहस्यवादी कवियों की भी एक घट्ट श्रृंखला मिलती है। अपभ्रंश और हिन्दी को तो इन कवि साधकों ने अपने विचारों की भिव्यक्ति का माध्यम बनाया ही, प्राकृत और संस्कृत में भी उच्चकोटि के ग्रन्थों का प्रणयन किया।
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मैने अपभ्रंश और 5वीं शताब्दी तक के हिन्दी कवियों को ही अपने अध्ययन का विषय बनाया है, किन्तु यहाँ पर प्राकृत और संस्कृत के उन प्राचार्यों का उल्लेख कर देना भी आवश्यक है, जो परवर्ती मुनियों के प्रेरणास्रोत रहे हैं और जो रहस्यवाद के मूल उस हैं।
प्राकृत में :
जैन साहित्य आचार्य कुंदकुंद से प्रारम्भ होता है। आपको ही जैन feat को सर्वप्रथम लिपिवद्ध करने का श्रेय प्राप्त है। आपको ही प्रथम जैन रहस्यवादी कवि कहा जा सकता है आपके साविर्भाव काल के सम्बन्ध में काफी मतभेद हैं, किन्तु अधिकांश विद्वान् ग्रापको ईसा की प्रथम शताब्दी का कवि मानते हैं। आपकी सभी रचनाएँ प्राकृत भाषा में हैं। वैसे तो आपके ८४ पाहुड़ प्रसिद्ध हैं. किन्तु अष्टपाहुड़ ही उपलब्ध हैं। इनमें से मोक्खपाहुड़, भावपाहुड और लिंगपाहुड का नाम रहस्यवादी रचनाओं की दृष्टि से विशेष रूप से उल्लेखनीय है। समयसार और प्रवचनसार भी आपके उच्चकोटि के
१. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी- हिन्दी साहित्य का श्रादिकाल, पृ० ११, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्, द्वि० सं०, १६५७, पटना ३ ।