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द्वितीय अध्याय
सुद्धहं संजमु सीलु तउ सुद्धहं दंसणु णाणु । सुद्धई कम्मक्खउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ॥६७॥
(परमात्म प्रकाश, अध्याय २) चित्त शोधन मात्र से मानव मन स्वच्छ दर्पणवत् परम तत्व का आभास कराने लगता है। मन बहिर्मुखी न रहकर अन्तर्मुखी हो जाता है। अपने परम प्रिय का दर्शन पा अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करता हया साधक उस अवस्था को प्राप्त हो जाता है, जिसमें बाह्य धर्म की अपेक्षा नहीं रहती। वे विस्मृत हो जाते हैं। तब पूजा करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। और ठीक भी तो है। जब मन परमेश्वर से मिल गया और परमेश्वर मन से, दोनों समरम हो रहे तो पूजा किसे चढ़ायी जाय ?
मणु मिलियउ परमेसरहो परमेसरु जि मणस्स । विणिण वि समरसि हुइ रहिअ पुज्ज चढ़ाव कस्स ॥४॥
(मुनि रामसिंह-पाहुइ दोहा) इस सामरस्य अवस्था को प्राप्त हुअा साधक अखिल विश्व को 'ब्रह्ममय' देखने लगता है। भौतिक पदार्थों की भिन्नता में भी उसे अभिन्नत्व भासित होने लगता है। पाप-पुण्य, लाभ-हानि, गुण-दोष आदि की विवेचना करना तो दूर रहा, उसके भेद की ओर भी साधक का मन नहीं जाता। तभी तो मुनि योगीन्दु ने कहा था कि किसकी समाधि करूँ ? किसकी अर्चना करूँ? .स्पर्शास्पर्श का विचार कर किसका परित्याग करूँ ? किससे मित्रता और किससे शत्रुता करूं ? जहाँ कहीं देखता हूं, आत्मा ही दिखाई पड़ता है :
को ? सुसमाहि कर को अचंउ छोपु अलोपु करिबि को वंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ जहि कहि जोवउ तहि अप्पाणउ ॥४०॥
( योगसार) इस प्रकार कर्म से मुक्त होकर प्रात्मा शुद्ध-चेतन-व्यापार-स्वरूपा हो जाता है। मिथ्यात्व के बन्धन और सीमाएं मृणालतन्तुवत् टूट जाते हैं। यही सिद्ध केवली अथवा आत्मा की मुक्त अवस्था कही गयी है। यह साधना-पथ रहस्यवाद ही कहा जायगा । श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 'अप्टपाहुड़ की भूमिका में श्री जगत प्रसाद ने भी इसी तथ्य को स्वीकार करते हए कहा है कि जनवाद का आधार रहस्यानुभूति है, किन्तु सिद्धान्त वर्णन में स्पष्ट पद्धति और सरल सीधी भाषा का प्रयोग किया गया है, इससे धर्म के प्रेम और सेवा के तत्व आकर रहस्यवाद के आलोचकों से इसकी रक्षा करते हैं।'
1. Jainism is based on a mystic experience, but the doctrine has
been worked out systematically and put in plain straight language, which makes it clear that it is not different from the religion of love and service, which the critics of mysticism would advocate.-Asta-Pahuda of Kundkundacharya, PartIIntroduction by Jagat Prasad, Page 18.