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द्वितीय अध्याय
साथ ही माथ इन लोगों ने अनेक नवीन तत्वों को ग्रहण किया तथा प्राचीन संकीर्ण विचारों का परित्याग भी किया ! आठवीं शताब्दी के बाद धर्म-साधना का नया स्वरूप :
जैसा कि हम पहले कह चके हैं मार्च-न्वीं शताब्दी तक आते-पाते जैन मत पर पर्याप्त बाह्य प्रभाव पड़ चुका था। वह पूर्व तीर्थङ्करों द्वारा नियोजित कर्मकांड की बहलता और अतिगयता मे भी ऊब चका था। अतः इसकी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक रूप में आवश्यक थी। परिणामतः इस समय तक आते-आते जैन सन्तों की विचार मरणि और अभिव्यक्ति की प्रणाली में भी काफी अन्तर आ गया। यद्यपि तांत्रिकों के अवगण से यह बचा रहा तथापि इसने बौद्ध, शैव, शाक्त आदि योगियों और तांत्रिकों की अनेक बातों को ग्रहण कर लिया। बाह्याचार का विरोध, चिनगृद्धि पर जोर, शरीर को ही समस्त साधनाओं का केन्द्रविन्दु मानना और ममरमी भाव से स्वसंवेदन प्रानन्द का उपभोग जैन प्राचार्यों द्वारा उमी प्रकार स्वीकृत और प्रमारित हया, जिम प्रकार तत्कालीन अन्य प्रात्मदर्शी सन्तों द्वारा। प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का तो विश्वास है कि अगर उनकी रचनाओं के ऊपर से जैन विगेपण हटा दिया जाय तो वे योगियों और तांत्रिकों की रचनाओं से बहुत भिन्न नहीं लगेगी। वे ही भाव और वे ही प्रयोग घूम फिर कर उस युग के सभी माधकों के अनुभव में पाया करते थे।" मध्यकालीन साधकों के इस भाव-साम्य पर हम आगे चलकर विस्तार से विचार करेंगे। यहां केवल इतना संकेत कर देना चाहते हैं कि इन जैन मुनियों ने सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने के लिए. परम तत्व की प्राप्ति और जानकारी के लिए उसी साधना पथ को अपनाया, जिसे रहस्यवाद' के नाम से अभिहित किया जाता है। उन्होंने बाह्याडम्बरों, रुढ़िवादिताओं और पाखण्डों का विरोध किया, शरीर को ही समस्त साधनाओं का केन्द्र माना और भौतिक शरीर और आत्मा में अन्तर स्पष्ट करते हुए विराट तत्व का निवास इसी शरीर में बताया। मुनि योगीन्दु ने कहा कि देह रूपी देवालय में ही अनादि और अनन्त परमात्मा का वास है, जो केवल-ज्ञान से स्फूरित होता है :
देहा देवलि जो बसइ देउ अणाइ अणंतु। केवल-णाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥३३।।
(परमात्म प्रकाश) देह स्थित इस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मन्दिर, तीर्थाटन, पूजा आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता नहीं। तीर्थयात्रा से केवल बाह्य शरीर मल रहित हो सकता है, किन्तु अन्तरात्मा अप्रभावित ही रहेगा :
तित्थई तित्थ भमंतयह किं णणेहा फल हूब । बाहिरु सुद्धउ पाणियहं अभितरु किम हूब ।।६।।
(पादुड़ दोहा)
१. श्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी--मध्यकालीन धर्म साधना, पृ० ४३ ।