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अध्यात्म पंचासिका दोहा
द्यानतराय
आठ कर्म के बंध में, बंधे जीव भव वास । कर्म हेर सब गुण भरे, नमो सिद्ध सुखरास ॥१॥ जगत मांहि चहुं गति विर्षे, जनम मरण बस जीव । मुक्ति नाहिं तिहुंकाल में, चेतन अमर सदीव ॥२॥ मोक्ष माहि सेती कभी, जग में आवै नाहिं। जग के जीव सदीव ही, कर्म करि सिव जाहिं ॥३॥ सुभ भावन ते पुन्य है, असुभ भाव ते पाप । दुहु आच्छादित जीव सो, जान सकै नहिं आप ॥७॥ चेतन कर्म अनादि के, पावक काठ बखान । खीर नीर तिल तेल ज्यौं, खान कनक पाखान ॥८॥ जो जान सो जीव है, जो मानै सो जीव। जो देखे सो जीव है, जीवै जीव सदीव ॥३५॥ पुद्गल सो चेतन बंध्यौ, यह कथनी है हेय । जीव बंध्यौ निज भाव सौं, यही कथन आदेय ॥३८॥ तीन भेद व्यवहार सौं, सरब जीव सब ठाय। बहिरन्तर परमातमा, निहचै चेतनराय ॥४४॥ जा पद में सब पद बसें, दरपन ज्यौं अविकार। सकल विकल परमातमा, नित्य निरंजन सार ॥४५॥ बहिरातम के भाव तजि, अंतर आतम होय । परमातम ध्यावै सदा, परमातत 8 सोय ॥४६।। बूंद उदधि मिलि होत दधि, बाती फरस प्रकास। त्यौं परमातम होत हैं, परमातम अभ्यास ॥४७।। सब आगम को सार जो, सब साधन को देव । जाको पूजें इन्द्र सम, सो हम पायो देव ॥४८॥
१. लाला बाबू राम जैन, करहल, जि० मैनपुरी के पास सुरक्षित प्रति से (खोज
रिपोर्ट १९३२-३४, पृ० १२६)