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उपदेश दोहाशतक
पांडे हेमराज
(रचना काल-सं० १७२५ ) दिव्य दृष्टि परकासि जिहिं, जान्यौ जगत असेस । निसप्रेही निरर्बुद निति, बंदौं त्रिविध गनेस ॥१॥ कुपथ उथपि थापत सुपथ, निसप्रेही निरगंथ । असे गुरु दिनकर सरिस, प्रगट करत सिवपंथ ॥२॥ गनपत हिदय विलासिनी, पार न लहै सुरेस। सारद पदि नमि के कहौं, दोहा हितोपदेस ॥३॥ आतम सरिता सलिल जैह, संजम सील बखानि । तहाँ करहि मंजन सुधी, पहुँचै पद निरवाणि ॥४॥ सिर साधन को जानिये, अनुभौ बड़ो इलाज । मूढ सलिल मंजन करत, सरत न एको काज ॥५॥ ज्यौं इन्द्री त्यौ मन चलै, तो सब क्रिया अकत्थि । ताते इन्द्रीदमन को, मन मरकट करि हत्थि ॥६॥ पढ़े ग्रंथ इन्द्री दवै, करै जु बरत विधान । अप्पा पर समुझे नहीं, क्यौं पावै निरवाण ॥८॥ कोटि जनम लौं तप तपै, मन बच काय समेत । सुद्धातम अनुभौ बिना, क्यौं पावै सिब खेत ॥१८॥ ठौर ठौर सोधत फिरत, काहे अंध अबेव । तेरे ही घट में बसै, सदा निरंजन देव ॥२५॥ पढ़त ग्रंथ अति तप तपत, अब लौं सुनी न मोष । दरसन ज्ञान चरित्त स्यौं, पावत सिव निरदोष ॥२७॥ कोटि बरस लौं धोइए, अढ़सठि तीरथ नीर। सदा अपावन ही रहै, मदिरा कुंभ सरीर ॥३०॥ तब लौं विषय सुहावनौ, लागत चेतन तोंहि । जब लौं सुमति बधू कहै, नही पिछानत मोंहि ॥४६॥
१. ठोलियों के मंदिर, जयपुर तथा बधीचन्द जैन मंदिर, जयपुर की
हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर लेखक द्वारा सम्पादित। .: