________________
२७८
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
छायातरु सिवपंथडइ, जिनवर त्तुंगु विसाणू । क्खणि बीसमहि जे तासु तलि, सुहु बंधहि णिव्वाणु ॥६९॥ छिणहिं झाण कुट्ठारिण, मूलहो माया बेल्लि । पइसिवि जिणवर वरसमइ, समर महावहि खेल्लि ॥७०॥ छीरह नीरह हंसु जिम, जाणइ जुव जुव भाउ । तिम जोइय जिय पुग्गलहिं, करहि त सिवपुरि टाउ ॥७१।। छुडु अतरु परियाणि जइ, बाहरि तुट्टइ नेहु । गुरुहं पसाइ परमपउ, लब्भइ निस्संदेहु ॥७२॥ जव तव वेयहि धारणहिं, कारणु लहण न जाइ। देहप्पुवि गुरु बिरहियहं, जोइण सउ पडिहाइ ॥९१॥ झंपिवि धरि पंचेंदियइ, णिय णिय विसयहं जंत। किन पेछहि झाणट्टियउ, जिण उवएस कहंत ॥१०२।। ते कि देवें कि गुरुणे, धम्मे णय किं तेण । अप्पह चित्तहं णिम्मलउ, पच्चउ होइ ण जेण ॥१५८।। तोसु रोसु माया मयणु, मउ मछरु अहंकारु । कोहु लोहु जइ परिहरहि, ता छिज्जइ संसारु ॥१६॥ थप्पिय थावर जंगमहिं, जंगम देवं ण भंति । परिभावहि मणि अप्पणइं, सीस कि सिलह तरंति ॥१६४॥ थोडउ अछइ यह विसउ, भाउ म देसिम अत्थु । जिम अप्पहं पुणु तिम परहं, चितहि इउ परमत्थु ॥१७२॥ दमु दय संजमु णियमु तउ, आजमु वि किउ जेण । तासु मरंतहं कवणु भउ, कहियउ महइंदेण ॥१७६।। दैवह दोसु म देहि तुहुँ, खल संयम चल भाय। हिंडइ धरि धरि असइ जिम, दिति जुवाणहं ताव ।।१८३॥ धम्मु ण मत्थइ मुंडियइं, अंगि न लग्गइ छारि। मण वय कायहि होय फुडु, परिहरियइ परिवारि ।।१८८।। धरि मणु मक्कडु अप्पणउं, घल्लंतउ आलाउ। तउ तरुडालहि जइक्खसिउ, फलह ण कडुवउ साउ ॥१९९॥ नव कारहिं पंचहिं सहिउ, करइ जु मुणिस णासु । पंचाणुत्तरि मोक्खिलहु, निछउ होइ णिवासु ॥२०॥ निच्च म देहु ण बिहउ थिरु, मरणुविअविणाभाय । इव जाणंतुवि जीव तुहु, धम्मु ण करहि कयावि ॥२०२॥ नूनं नरय पडतयह, जिणवरु करइ परत्त । परमत्थिण भत्तिय सहिउ, जइ सुमरिज्जइ मित्त ।।२०५।। फीट्टी एवहि भंतडी, महुचित्तहं परमत्थु ।। सिरि गुरु फुडु विच्चारियउ, कहियउ जिणहि वयत्थु ।।२२७॥ फुडु एत्तिउ मइ जाणियउ, झाणे केवलणाणु। केवलणाणे नित्तुलउ, पाविज्जइ निव्वाण ॥२२॥