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एकादश अध्याय
नाथ योगियों ने प्राय: अवधू सम्बोधन द्वारा ही सिद्धान्त-निरूपण किया है। कहीं पर वे अवधू की विशेषताएं बताते हैं, कहीं पिंड-ब्रह्माण्ड की एकता का प्रतिपादन करते हैं, कहीं सूरति निरति की बात करते हैं तो कहीं सहज महासुख की। चर्पटीनाथ उसी को अवधूत मानते हैं जो करतल में भिक्षा ग्रहण करता है, सदैव एकाको वन प्रदेश में अथवा श्मशान में रहता है।' गोपीचन्द ने प्रश्न किया कि 'हे स्वामी! बस्ती में रहता है तो कंदपं का कोप होता है, जंगल में रहता हूँ तो क्षुधा व्यापती है, मार्ग चलता हूँ तो काया क्षीण होती है, मीठा खाता हूँ तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में योग कैसे किया जाय?' उत्तर में जलंधरी पाव कहते हैं कि हे अवधू ! भोजन में संयम से कर्दप नहीं व्याप्त होता, साधना के आरम्भ करने पर क्षुधा नहीं सताती, सिद्ध आसन में माया नहीं लगती। नाद के प्रयाण से काया नहीं छीजती, जिह्वा के स्वाद में न पड़कर मन पवन लेकर योग को साधना करनी चाहिए। चर्पटनाथ भी अवधू को 'कामिणि' से दूर रहने का उपदेश देते हैं। इसी प्रकार दत्त जी संयम और संतोष 'अवधू' का प्रधान लक्षण मानते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक नाथ योगी अपने को अवधूत मानता था और अवधू की साधना की सिद्धि के लिए हठयोग को साधना के अतिरिक्त संयम, एकांत, संतोष आदि गुणां की अनिवार्यता में भी विश्वास करता था।
संतों में कबीरदास ने 'अवधू' शब्द का उल्लेख बहुत अधिक किया है। यद्यपि कबीर स्वयं 'अवधू' मार्ग के अनुयायी नहीं थे तथापि ऐसा प्रतीत होता
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१. करतलि भिध्या विरण तलि वास ।
दोइ जन अंग न मेलै पास ।। बन पंडि रहे मसाणे भूत | चरपट कहै ते अवधूत । ४२।।
(नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० ३१) अवधू संजम अहारं ।। कंद्रप नहीं व्यापै ।। बाई प्रारम्भ षुधा न संतापै। सिध आसण नहिं लागे माया ।।
(नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ०५३) ३. चरपट कहै सुणौ रे अवधू ।
कामणि संग न कीजै ॥ जिन्द बिंद नौ नाड़ी सोफै। दिन दिन काया छीजै ||१६||
(नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ. २८) ४. नाथ सिद्धों की बानियाँ (दत्त जी की सबदी), पृ.५७ ।