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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यबाद
सिद्धों और नाथ योगियों के
समय में 'निरंजन' सम्प्रदाय जन्म लेकर बढ़ रहा था, अतएव उनका 'निरंजन' शब्द से परिचित होना स्वाभाविक ही है । सिद्ध सरहपाद ने परम पद को 'शून्य निरंजन' कहा है' और तिलोपा ने आत्मा की विशेषताओं का वर्णन करते हुए उसे 'बुद्ध' और 'निरंजन' बताया है ।" गोरखनाथ ने निरंजन शब्द का प्रयोग उस परम तत्व के लिए किया है, जिसका न उदय है और न अस्त, जो न रात्रि है न दिवस, न शाखा है न मूल, जो न सूक्ष्म है और न स्थूल, फिर भी सर्वव्यापी है । भरथरी जी के मत से 'निरंजन' पद का वही अधिकारी है, जो तत्वज्ञान से परिचित हो ।
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जैन कवियों ने 'निरंजन' शब्द का प्रयोग परमात्मा के पर्यायवाची रूप में किया है । लेकिन उनका 'परमात्मा' ब्रह्मवादियों के परमात्मा से भिन्न है । उनके मत से आत्मा की तीन अवस्थाएँ हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । प्रत्येक आत्मा अष्ट कर्म मल से रहित होने पर परमात्मा बन सकता है । इस प्रकार उनका परमात्मा कोई एक अखण्ड, अद्वैत तत्व नहीं है, अपितु संख्या में अनेक है । यह परमात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवताओं से बड़ा है। इसी परमात्मा के लिए योगीन्दु मुनि कहते हैं कि वह त्रिभुवन में वंदित है और हरिहर भी उसकी उपासना करते हैं ( परमात्मप्रकाश १।१६ ) | वह परमात्मा नित्य है, निरंजन है, ज्ञानमय है, परमानन्द स्वभाव है और वही शिव है (परमात्मप्रकाश १३१७) । वह निरंजन है, क्योंकि वह रागादि सभी उपाधियों और कर्म मल रूप अंजन से रहित है । आगे उसी निरंजन तत्व की व्याख्या करते हुए योगीन्दु मुनि कहते हैं कि जिसके न कोई वर्ण है न गंध, न रस है और न शब्द या स्पर्श तथा जो जन्म-मरण के चक्र से परे है, उसी का नाम निरंजन है । जिसमें न क्रोध है न मोह, न मद है न मान, जिसका न कोई स्थान है न उसे निरंजन जानो । जो न पुण्यमय है न पापमय, जो न हर्ष करता है, न
ध्यान,
१. सुरण गिरंजण परम पउ, सुइणोमात्र सहाव | भावहु चित्त सहावता, जउ णासिज्जइ जाव ॥१३६॥ ( दोहाकोश, पृ० ३०)
२. हउं जग हउं बुद्ध हउं गिरंजण ।
इउं अमण सिवार भव भंजण ॥ १६ ॥
४.
( हिन्दी काव्यधारा, पृ० १७४ )
३. उदय न श्रस्त राति न दिन, सरबे सचराचर भाव न भिन्न । सोई निरंजन डाल न मूल, सर्वव्यापिक सुषम न अस्थूल ||
खपत संख का जाणै भेव ।
सोई होइ निरंजन देव ||८||
( हिन्दी काव्यधारा, पृ० १५८ )
( नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० ६७ )