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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
२५.
प्रायः शिव-शक्ति के मिलन की चर्चा की है और मन को परमेश्वर में मिलाकर 'समरसता' लाने पर जोर दिया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'पिण्ड में मन का जीवात्मा में तिरोभूत हो जाना या एकमेक होकर मिल जाना ही सामरस्य है।'' इसी बात को योगीन्दु मुनि इन शब्दों में कहते हैं :
मणु मिलियउ परमेसरहं,
परमेसरउ वि मणस्सु । बेहि वि समरस हूवाह, पुज्ज चड़ावउं कस्स ॥१।१२३॥
(परमात्मप्रकाश, पृ० १२५ ) वस्तुतः जब मन परमेश्वर से मिल गया और परमेश्वर मन से, तो कौन पूजा करे ? और किसकी पूजा की जाय ? उस अद्वैत स्थिति में सब कुछ तो ब्रह्ममय हो जाता है। इसीलिए योगीन्दु मुनि कहते हैं कि किस की समाधि करूँ ? किसकी अर्चना करूँ ? स्पर्शास्पर्श का विचार कर किसका परित्याग करूँ ? किससे मित्रता करूँ और किससे शत्रुता करूँ ? किसका सम्मान करूँ? क्योंकि जहाँ कहीं भी देखता हूँ अपनी आत्मा ही दिखाई पड़ती है। वस्तुत: इस समरसता की स्थिति में ऊँच-नीच और अपने-पराए का भेद-ज्ञान ही नहीं रह जाता है, फिर विभेद किया किस आधार पर जाय ? सरहपाद ने भी तो कहा था कि समरसता में शूद्रत्व और ब्राह्मणत्व का कोई विचार नहीं रह जाता-'तब्वें समरस सहजें वज्जइ णउ सुद्द ण बह्मण' ( दोहाकोष, पृ० २५ ) । मुनि रामसिंह ने भी कहा कि शारीरिक सुख-दुःख, चिन्ताएँ आदि तभी तक सताती हैं, जब तक चित्त निरञ्जन से मिलकर समरस नहीं हो जाता। और जब यह चित्त निरञ्जन में उसी प्रकार मिल जाता है जैसे जल में नमक, तब समरसता की स्थिति में किसी प्रकार की साधना या समाधि की आवश्यकता नहीं रह जाती। एक बात और है। इस समरसता की स्थिति में ही साधक 'आत्मा' का दर्शन करता है, जैसा कि
१. मध्यकालीन धर्म साधना, पृ० ४५ । २. को सुसमाहि करउं को अंचउ, छोपु अछोपु करिवि को वंचउ। ___ हल सहि कलहु केण समाणउ, जहिं कहिं जोवउं तहि अप्पाणउ ॥४०॥
__ (योगसार, पृ० ३७६)
2° २७६) .": ३. देहमहेली एह वढ तउ सत्तावइ ताम । चित्तु णिरंजणु परिण सिहुँ समरसि होइ ण जाम ॥६४॥
(पाहुड़दोहा, पृ० २०) ४. जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिम जइ चित्तु विलिज्ज । समरस हूवइ जीवडा काई समाहि करिज्ज ॥१७६॥
(पाहुड़दोहा, पृ० ५४)