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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
समरस और महासुख
'सामरस्य भाव' मध्य युग की महत्वपूर्ण साधना है। उस युग के सभी साधक इसकी चर्चा करते हैं, यद्यपि प्रत्येक का तत्ववाद दूसरे से भिन्न है। वज्रयानी सिद्धों, कौल साधकों, शैव और शाक्त मतावलम्बियों तथा जैन मुनियों ने समरसता की अपने अपने ढंग पर व्याख्या की है। वज्रयान में महायान के 'शून्य' एवं 'करुणा' क्रमशः 'प्रज्ञा' और 'उपाय' संज्ञा से अभिहित किए गए। 'प्रज्ञा' को स्त्री रूप दिया गया तथा 'उपाय' को पुरुषवत् माना गया। दोनों के मिलन को 'समरस' अथवा 'महासुख' कहा गया।' वज्रयानियों का यही चरम लक्ष्य है। उनके अनुसार 'सम' का अर्थ है-एकात्मकता तथा 'रस' का अर्थ हैचक्र । इस संसार चक्र के पदार्थों में एकात्मकता की उपलब्धि ही समरसोपलब्धि मानी गई। दार्शनिक दृष्टि से समरस का अर्थ है-अद्वय और युगनद्ध । अतएव इस अवस्था की प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण संसार एकरसमय और एकरागमय हो जाता है। इसीलिए हेवतन्त्र में कहा गया कि सहजावस्था में प्रज्ञा और उपाय की अभेदता रहती है किसी का पृथक् प्रत्यभिज्ञान नहीं रहता। इस प्रकार प्रज्ञा-उपाय 'कमल कुलिश' साधना के रूप में वामाचार के जन्म के कारण हुए और स्त्री-सुख को परम-सुख माना जाने लगा। कतिपय सिद्धों ने स्पष्ट रूप से कहा कि समरस गृहिणा महामुद्रा के प्रगाढ़ स्नेह से प्राप्त होता है। कण्हपा ने सीधे शब्दों में कहा कि निज गृहिणी को लेकर केलि करना चाहिए, फिर मन्त्र-तन्त्र की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है। तिलोपा ने कहा कि जो इस क्षणिक आनन्द के भेद जो जान लेते हैं, वही सच्चे योगो हैं।' सरहपाद ने इसी को 'परम महासुख' की संज्ञा दी।' उन्होंने कहा कि जिस प्रकार जल, जल में प्रवेश कर समरस हो जाता है, उसी प्रकार प्रज्ञोपाय में प्रज्ञा और उपाय का दाम्पत्य रूप में युगनद्ध हो जाता है। भुसुकपा ने भी यही उदाहरण देते हए कहा कि जैसे जल जल में समाकर अभिन्न हो जाता है उसी प्रकार समरस में मन रूपी मणि शून्यता में समाकर अभिन्न हो जाता है। तान्त्रिक बौद्ध साधना में इस वामाचार को अधिक विस्तार मिला। महामहोपाध्याय
१. Dr. Shashibhushan Dasgupta-Obscure Religious Cults,
(University of Calcutta, 1946,) p. 30. २. नागेन्द्रनाथ उपाध्याय-तान्त्रिक बौद्ध साधना और साहित्य, पृ० १४५ । ३. एक्कु ण किज्जइ मन्त ण तन्त । णि घरणी लइ केलि करन्त ॥ २८॥
(हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४८) ४. हिन्दी काव्यधारा, पृ० १७४ । ५. हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४ । ६. देखिए-सिद्ध साहित्य, पृ०.२३१ । .