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देशम अध्याय
जैनों का परमान्मा और कबीर का ब्रह्म :
आत्मा परमात्मा के संबंध में भी कबीर के विचार बहन कुछ जैन कवियों के समान ही हैं। अन्तर केवल इनना ही है कि जन मन में अनेक आत्मा अनेक ब्रह्म बन जाते हैं और कबोर के मत से अनेक आन्मा एक ही ब्रह्म के अनेक रूप हैं। लेकिन आत्मा और परमामा में कोई तात्विक भेद नहीं। दोनों एक हैं। यह दोनों की ही धारणा है। जैन कवियों ने जोर देकर कहा है कि आत्मा कर्म कलंक से विमुक्त होकर परमात्मा बन सकता है और कबीर भी कहते हैं कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। दृष्टान्तों द्वारा उन्होंने पूर्णत: स्पष्ट कर दिया है कि आत्मा और परमात्मा की एकता दो भिन्न वस्तुओं की सामान्यमिता ही नहीं, प्रत्युत् पूर्ण एकता है। वह दो को एकता नहीं, एक की ही एकता है। जैसे जलाशय के भीतर डुवे हए घड़े के भीतर और बाहर एक ही जल है, जैसे दर्पण का प्रतिविम्ब अपने बिम्ब से भिन्न नहीं है और जैसे घट के भीतर के आकाश और बाहर दगों दिशामों में फैल हए आकाश में कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार गई परमान्मा तथा इस शरीर के भीतर का आत्मा दोनों एक ही हैं। जैसे वाह्य व्यवधानों के दूर होने पर जलादि एक हो जाते हैं, उसी प्रकार शरीरजन्य कर्मों के समाप्त हो जाने पर आत्मा परमात्मा का प्रतीत होने वाला भेद भी समाप्त हो जाता है।' यह भेद ग्रन्थों के अध्ययन से समाप्त नहीं हो सकता। इसके लिए तो चित्त की शुद्धि आवश्यक है और गुरु की कृपा । इसीलिए इन साधना पंथों में गुरु को गोविन्द से भी बड़ा स्थान मिला है। जब आत्मा और परमात्मा एक ही है और आत्मा का वास शरीर में ही है तो परमात्मा को खोजने के लिए कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं. मन्दिर मस्जिद में भटकने से लाभ नहीं। उसका दर्शन तो अपने अन्तर में ही करना चाहिए। इसीलिए कबीर और सभी जैन कवियों ने देवालय में जाने का निषेध कर, देह-देवालय में स्थित देव का दर्शन करने पर जोर दिया हैं। कबीर कहते हैं : ..
१. जल में कुंभ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि ममाना यह तत कयौ गियानी ॥
ज्यूं बिंबहिं प्रतिबिम्ब समाना उदिक कुम्भ बिगगना। कहै कबीर जानि भ्रम भ गा, सीवहि जीव समाना ॥ .
आकाश गगन पाताल गगन दसौ दिम गगन कहाई ले। आनन्द मूल सदा परसोतम, घट बिनसै गगन समाई लै।