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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि 'स्पष्ट ही गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित कहे जाने वाले पंथों में पुराने सांख्ययोगवादी, बौद्ध, जैन, शाक्त सभी हैं। सभी की सामान्यधर्मिता योग मार्ग है।' नाथ पंथियों के हठयोग, सामरस्यभाव अवध सम्बोधन आदि को तो जैनों ने अपनाया ही, उन्हीं के समान निरंजन, रवि-शशि, वाम-दक्षिण, शिव-शक्ति, अजपा आदि का भी वर्णन किया। इसके अतिरिक्त दोनों साधनाओं में कतिपय अन्य समानताएँ भी मिलती हैंजैसे, पिंड-ब्रह्माण्ड की एकता, मन एवं इन्द्रिय नियन्त्रण, बाह्याचार विरोध, गुरु का महत्व, परम पद की कल्पना तथा आत्मा और ब्रह्म की एकता आदि।
हठयोग की साधना :
योग कई प्रकार का होता है, जैसे प्रेमयोग, सांख्ययोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, योग. राजयोग, मंत्रयोग आदि । इनमें नाथ पंथ की साधना का नाम 'हठयोग' है। यद्यपि हठयोग की परम्परा भी प्राचीन है, किन्तु गोरखनाथ ने इसको व्यापक रूप दिया और नाथ सिद्धों की साधना का मूल आधार हठयोग ही दया। हठयोग शरीर से होता है अर्थात् श्वास प्रश्वास एवं शारीरिक अंगों पर अधिकार प्राप्त कर उनका सम्यक् उपयोग करते हुए मन को एकाग्र कर ब्रह्म में नियोजित करना हठयोग है। सिद्ध सिद्धान्त पद्धति में 'ह' का अर्थ 'सूर्य' बतलाया गया है और 'ठ' का अर्थ 'चन्द्र'। सूर्य और चन्द्र के योग को हठयोग कहते हैं :
'हकारः कथितः सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते ।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगात् हठयोगो निगद्यते ॥" इस श्लोक की व्याख्या कई प्रकार से की गई है। कुछ लोग सूर्य (प्राणवायू) और चन्द्र (अपान वायु) के योग अर्थात् प्राणायाम से वायु का निरोध करना हठयोग मानते हैं। दूसरे लोग सूर्य (इड़ा नाड़ी) और चन्द्र (पिंगला) को रोक कर सषम्णा मार्ग से प्राणवायु के संचार को हठयोग कहते हैं। संत सुन्दरदास ने 'सर्वांग योग प्रदीपिका' के 'हठयोग नाम तृतीयोपदेश' में रवि-शशि के योग को ही हठयोग माना है :
रवि शशि दोऊ एक मिलावै ।
याही तै हठयोग कहावै ॥ इस साधना पद्धति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति कुंडलिनी और प्राण शक्ति लेकर पैदा होता है। सामान्यतया यह 'कुंडलिनी' शक्ति निश्चेष्ट रूप से उपस्थ
१. नाथ सिद्धों की बानियाँ ( भूमिका ), पृ० १६ । २. प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-नाथ सम्प्रदाय, पृ० १२३ से उद्धृत ।