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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद और बाह्याचार की अपेक्षा चित्तशुद्धि को महत्व दिया है, लेकिन उन्होंने यह भी तो कहा है कि :
कमल-कुलिस वेवि मज्म ठिउ, जो सो सुरअ विलास । को न रमइ णइ तिहुअणहिं, कस्स ण पूरइ आस ||६४॥
(हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४) । इसी प्रकार कण्हपा ने भी कहा है कि मन्त्र-तन्त्र के चक्कर में न फंसकर निज़ गहिणी को लेकर केलि करना चाहिए।' यही सर्वोत्तम साधना है। तिलोपा ने भी इसी 'खण आणंद' को श्रेयस्कर बताया है।
___ इससे यह निश्चित हो जाता है कि वज्रयान और सहजयान दोनों से तात्पर्य एक ही सम्द्राय से था । वज्रयान अधिक प्रचलित शब्द था। लेकिन सरहपाद आदि कतिपय सिद्धों में 'सहज' शब्द का अधिक प्रयोग देखकर, बाद में सिद्धों को 'सहजयानी' भी कहा जाने लगा। इसीलिए राहुल सांकृत्यायन ने अपने ग्रन्थों में इस प्रश्न के ही नहीं उठाया है और ८४ सिद्धों का कहीं पर व्रजयानी और कहीं पर सहजयानी नाम से उल्लेख किया है। जिन लक्ष्मींकरा को 'सहजयान' की प्रवर्तिका माना गया है, उनकी गणना सरहपाद के ही साथ, बज्रयानो साहित्यकारों में भी की गई है। अतएव जैसा कि डा. धर्मवीर भारती ने लिखा है कि 'सहजयान को वज्रयान से अलग कोई शाखा मानना अथवा सहजयान को वज्रयान के अन्तर्गत कोई स्वतन्त्र शाखा मानना अथवा सहज साधना में देवता, मन्त्र, तन्त्र, योग, मैथुन तथा अतिचारों का अभाव मानना युक्तिसंगत नहीं है।"
चौरसी सिद्ध
सिद्धों के काव्य के समान ही उनका जीवन, समय तथा उनकी संख्या आदि सभी कुछ तिमिराच्छन्न, अतएव विवाद के बिषय हैं। सिद्ध शब्द के साथ ८४ और नाथ के साथ ९ अंक अभिन्न रूप से गंथे हुए हैं। लेकिन ८४ सिद्ध कौन थे? इसकी कोई एक सुनिश्चित और प्रामाणिक सूची अभी तक नहीं बन पाई है। विभिन्न स्रोतों के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने जो सूचियाँ दी हैं, उन में काफी पार्थक्य है। इन सूचियों में महामहोपाध्याय श्री हरप्रसाद शास्त्री
१. एक्कु ण किज्जा मन्त तन्त । णि घरणी लइ केलि करन्त रिस।
(हिन्दी काव्यधारा, पृ० १४८) २. हिन्दी काव्यधारा, पृ० १७४ । ३. देखिए--तांत्रिक बौद्ध साधना और साहित्य, पृ० ११३ । ४. सिद्ध साहित्य, पृ. १४८।