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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद जान लेता।' जब तक गुरु के प्रसाद से अविचल बोध को नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक वह लोभ से मोहित हुआ विषय में फंसा रहता है और विषय सुखों को ही सच्चा सुख मानता रहता है। इसीलिए मुनि रामसिंह 'दोहापाहुड़' के आदि में गुरु की वन्दना करते हुए कहते हैं कि गुरु दिनकर है, गुरु चन्द्र है, गुरु दीप है और गुरु देव भी है, क्योंकि वह आत्मा और पर पदार्थों की परम्परा का भेद स्पष्ट कर देता है। आनंदतिलक इसी बात को दूसरे शब्दों में कहते हैं । उनके अनुसार गुरु जिनवर है, गुरु सिद्ध शिव है और गुरु ही रत्नत्रय का सार है, क्योंकि वह स्व-पर का भेद दर्शाता है, जिससे भव जल को पार हुआ जा सकता है। द्यानतराय का कहना है कि गुरु के समान विश्व में दूसरा कोई दाता है ही नहीं। जिस अन्धकार का विनाश सूर्य द्वारा भी सम्भव नहीं, गुरु उसको समाप्त कर देता है। वह मेघ के समान निष्काम भाव से सभी के ऊपर कृपाजल की वर्षा करता है तथा नरक, पशु आदि गतियों से जीव का उद्धार करके उसमें मुक्ति की स्थापना करता है। त्रयलोक रूपी मंदिर में दीपक के समान प्रकाशित होने वाला गुरु ही है। संसार सागर से पार जाने का एक मात्र साधन सुगुरु रूपी जहाज ही है। अतएव निर्मल मन से सदेव उसके चरण कमलों का स्मरण करना चाहिए।
१. ताम कुतित्थई परिभमइ धुत्तिम ताम करेइ । गुरुहु पसाएँ जाम णवि अप्पा देउ मुणेइ ॥४१॥
(योगसार, पृ० ३८०) २. लोहिं मोहिउ ताम दुहुँ विसयह सुक्खु मुणेहि । गुरुहं पसाएँ जाम ण वि अविचल बोहि लहेहि ॥१॥
(रामसिंह-पाहुड़दोहा, पृ० २४) ३. गुरु दिणयक गुरु हिमकिरणु गुरु दीवउ गुरु देउ।
अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावद भेउ ॥१॥ ४. गुरु जिणवरु गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयणतय सारु । सो दरिसावइ अप परु आणंदा! भव जल पावर पार ॥३६॥
(पाणंदा) गुरु समान दाता नहिं कोई। मानु प्रकास न नासत जाको, सो अंधियारा डारै खोई ॥१॥ मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई । नरक पशुगति अागांहिते सुरग मुकत सुख थापै सोई ।।२।। तीन लोक मंदिर में जानौ, दीपकसम परकाशक लोई । दीपतले अंधियारा भरयौ है अन्तर बहिर विमल है जोई ।।३।। तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जगतोई । द्यानत निशिदिन निरमल मन में, राखो गुरु पद पंकज दोई ।।४।।
(द्यानत पदसंग्रह, पृ० १०)