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दुष्ट
क्षार रूप में परिणत हो जाय । इसीलिए योगीन्दु मुनि शरीर को व्यक्ति के समान समझते हैं, जिसको अनेक प्रकार से सुसज्जित रखने का प्रयत्न किया जाता है, तैलादि से जिसका मर्दन किया जाता है, विविध प्रकार के शृङ्गार किए जाते हैं, सुमिष्ट आहार से परितृप्त किया जाता है तथापि वह अन्तत: धोखा देही देता है।' मुनि रामसिंह ने 'दोहापाहुड़' के दोहा नं० ८, ९, १०, ११, १२, १३, १८, २२ आदि में इसी रहस्य का उद्घाटन किया है। भैया भगवतीदास कहते हैं कि सांसारिक कार्य उस धूम्र समूह के समान अस्थिर हैं, जो पवन के संयोग से विलीन हो जाते हैं; सांध्य कालीन अरुणिमा के समान क्षणिक हैं, जो देखते-देखते विलीन हो जाती है; स्वप्नावस्था में प्राप्त सम्राट्-पद के समान मिथ्या हैं, इन्द्रधनुष के समान चपल हैं, सूर्य रश्मि के स्पर्श मात्र से समाप्त होने वाली प्रोस विन्दु के समान हैं । अतएव उनके प्रति मोह एवं प्रसक्ति क्यों ? आनन्दघन को तो बहुत ही दुःख और आश्चर्य होता है कि प्राणी मानव योनि प्राप्त करने मात्र से ही अपने को कृतार्थ मान लेता है और सुत, बनिता, यौवन तथा धन के मद में अपने को इतना भूल जाता है कि गर्भजन्य कष्टों का स्मरण तक नहीं आता, स्वानवत् सांसारिक सफलताओं को ही सत्य मान लेता है, मेघ छाया में आनन्द मनाने लगता है और इस बात की भी चिन्ता नहीं करता कि एक दिन काल उसी प्रकार से गर्दन पकड़ लेगा, जैसे नाहर बकरी को चट कर जाता है । इसीलिए वे कहते हैं कि 'रे पागल ! तू क्यों सो रहा है, अब भी क्यों नहीं जाग जाता । अञ्जलि ग्रहीत जल के समान प्रत्येक क्षण आयु घटती चली जा रही है, देवन्द्र, नरेन्द्र और नागेन्द्र सभी काल कवलित हो जाते हैं, इसलिए रंक राजा में भेद का प्रश्न ही नहीं उठता भव- जलधि में भगवद्भक्ति ही एक मात्र दृढ़ नौका है, अतएव इसी माध्यम से शीघ्रातिशीघ्र पार जाने की चेष्टा करनी चाहिए।
१. उच्चलि चोपडि चिह्न करि देहि सु-मिट्ठाहार । देहहं सयल णिरत्थ गय जिमु दुजणि उवयार || १४८ ||
२. धूमन के धौरहर देख कहा गर्व करै,
३.
ये तो छिन मांहि जाहिं पौन परसत ही । संध्या के समान रंग देखत ही होय भंग,
दीपक पतंग जैसे काल गरसत ही ॥ सुपने में भूप जैसे, इन्द्रधनुरूप जैसे
श्रीस बूंद धूप जैसे दुरे दरसत ही । ऐसोई भरम सब कर्म जालवर्गणा को,
तामें मूढ़ मग्न होय मरै तरसत ही ॥ १७ ॥ ( ब्रह्मविलास, पुण्य पचीसिका, पृ० ५ )
क्या सोवै उठ जाग बाउरे । अंजलि जल ज्यूं श्रायु घटत है, देत पहरिया घरिय घाउ रे इंद चंद नागिन्द मुनि चले, को राजा पति साह राउ रे ।
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