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सप्तम अध्याय
मोक्ष अथवा परमात्म-पद प्राप्ति के साधन
पिछले अध्याय में आत्मा और उसके स्वरूप का स्पष्टीकरण हो चूका है । यह भी स्पष्ट हो गया है कि प्रत्येक रहस्यदर्शी साधक का लक्ष्य ब्रह्मानुभूति अथवा परमात्म-पद प्राप्ति है । कर्मों के विनाश से ही आत्म स्वरूप का परिज्ञान सम्भव है । किन्तु कर्मों से निष्कृति कैसे प्राप्त होती है और साधक को अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए किन-किन मार्गों का अवलम्ब लेना पड़ता है तथा किन-किन वस्तुओं का परित्याग करना पड़ता है ? अथवा सन्तों और मुनियों ने ब्रह्मानन्द की प्राप्ति के लिए किन मार्गों का निर्देश किया है ? इसका अध्ययन भी आवश्यक है।
प्रत्येक रहस्यवादी चाहे वह जैन मुनि हो या बौद्ध सिद्ध, नाथ योगी हो या निर्गुनियाँ सन्त, लगभग एक ही प्रकार की बात करता है । भले ही उसकी शब्दावली में अन्तर रहा हो, भले ही उसके सम्प्रदाय की कतिपय अपनी मान्यताएं रही हों, किन्तु मूल स्वर सभी का एक प्रकार का है । इस दृष्टि से जैन काव्य का अध्ययन करने से विदित होता है कि उन्होंने साधना मार्ग के लिए दो प्रकार के तत्वों पर विशेष जोर दिया है- सांसारिक पदार्थों, विषय सुखों आदि का परित्याग अर्थात् निषेधात्मक तत्व और रत्नत्रय की उपलब्धि, गुरू का महत्व - ज्ञान, चित्त शुद्धि पर जोर आदि विधेयात्मक तत्व ।
निषेधात्मक तत्व सांसारिक पदार्थों की क्षणिकता का ज्ञान :
सामान्य स्थिति में प्राणी अज्ञान की निद्रा में सोते रहते हैं । सांसारिक पदार्थों और सम्बन्धों को ही स्थायी और चिरन्तन मान लेते हैं । धन और