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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
उसका तो विश्वास रहता है कि परमात्मा को किसी नाम से हो क्यों न पुकारा जाय, उसका तात्पर्य एक अखण्ड, अविनाशी, अज ब्रह्म से होगा। जैन साधकों ने भी नाम भेद की संकीर्णता को स्वीकार नहीं किया है। उन्होंने तो मुक्त कण्ठ से घोषणा की है कि जो निर्विकल्प परमात्मा है, वही शिव है, ब्रह्मा, विष्णु है। उसे किसो नाम से क्यों न पुकारा जाय, है वह एक, अद्वितीय । उसे जिन कहो या निरंजन, बुद्ध कहो या शिव, उसके गुण या स्वभाव में कोई अन्तर नहीं आता। योगीन्दु मुनि इसीलिए परमात्मा और निरंजन में कोई अन्तर नहीं समझते । निरंजन अर्थात् अंजन रहित, मल रहित । जो अंजन रहित होगा वही तो परमात्मा होगा। योगीन्दू मुनि कहते हैं कि जिसके न कोई वर्ण है, न गन्ध; न रस, न शब्द, न स्पर्श तथा जो जन्म-मरण से परे है उसी का नाम निरंजन है। जो न क्रोध करता है, न मोह, जिसके न मद है न माया मान और जिसके न कोई स्थान है, उसे निरंजन समझो। जो न पुण्य-पाप करता है और न हर्ष विषाद के मोह में फंसता है, जिसमें एक भी दोष नहीं है, उसे निरंजन कहते हैं :
'जासु ण वरण ण गन्धु रस जासु ण सर्दु ण पासु । जासु ण जम्मणु मरण णवि णाउ णिरंजणु तासु ॥१६॥ जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जासु ण ठाण ण माणु जिय सो जि णिरंजण जाण ॥२०॥ अत्थि ण पुण्ण ण पाउ जसु अस्थि ण हरिसु विसाउ। अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥२१॥
(परमात्मप्रकाश, प्र० महा० पृ० २८) यही नहीं 'योगसार' में वह और आगे बढ़ जाते हैं। वह कहने लगते हैं कि आत्मा ही सब कुछ है, वही देव है, वही गुरू है, वही अर्हत है, वही शिव है, वही जिन है, वही सिद्ध है वही मुनि है, वही आचार्य और उपाध्याय है। आत्मा ही शिव है, शंकर है, विष्णु है, रुद्र है, बुद्ध है, जिन है, ईश्वर है, ब्रह्मा है और अनन्त है :
अरहन्तु वि सो सिद्ध फुडु सो आयरिउ वियाणि । सो उवमायउ सो जि मुणि णिच्छई अप्पा जाणि ॥१०४॥ सो सिउ संकर विणहु सो सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिण ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्ध ॥१०॥
(योगसार, पृ० ३६४) लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि जैन मुनियों को अवतारवाद में विश्वास था। कबीरदास तथा अन्य साधकों के समान जैन कवियों ने भी अवतारवाद का खंडन किया है। जन्म जरा मरण से परे परमात्मा अवतार ले भी कैसे सकता है ? जिसका जन्म या अवतार होता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी