________________
१६०
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
जोव को बंधन में फंसाने वाले कर्मों की संख्या आठ मानी गई है। ये आठ प्रकार के कर्म निम्नलिखित हैं :
(१) दर्शनमोहनीय कर्म, (२) केवलज्ञानावरण, (३) केवलदर्शनावरण, (४) वीर्यान्तरायकर्म. ( ५ ) आयु कर्म, ( ६ ) शरीरनाम कर्म, (७) अगुरुलघु गुणनाम कर्म और ( ८ वेदनीय कर्म । इस प्रकार प्रथम कर्म से आत्मा का सम्यकत्व गुण आच्छादित रहता है, दूसरे से केवल ज्ञान छिपा रहता है, तीसरे से केवल दर्शन ढका है, चौथे से अनंतवीर्य ढका है, पांचवे से सूक्ष्मत्व गुण ढका है, क्योंकि आयु कर्म के उदय से जीव इन्द्रियज्ञान को धारण कर लेता है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान का अभाव हो जाता है, इसलिए स्थूल वस्तुओं को तो जानता रहता है, किन्तु सूक्ष्म वस्तुओं का ज्ञान नहीं रहता, छठे से अवगाहन गुण आच्छादित रहता है, सातवें से नाना प्रकार के श्रेष्ठ हीन आदि वंशों एवं गोत्रों के चक्कर में पड़ जाता है और अपने गोत्र को भूल जाता है और आठवें प्रकार के कर्म से अन्यावाध गुण ढक जाता है। परिणामतः जीव सांसारिक सुख दुःख का भोक्ता बन जाता है। इस प्रकार आत्मा के आठ गुण आठ कर्मों से ढक जाते हैं और जीव इस संसार में भटकता रहता है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि आत्मा पंगु के समान है, स्वयं न कहीं जाता है न कहीं आता है, तीनों लोकों में इस जीव को कर्म ही ले जाता है, कर्म ही ले आता है :
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयह वि मज्झि जिय विहि आणइ विहि णेइ ॥६६॥
(परमात्म० प्र० महा०) कर्म बंधन से मुक्ति कैसे सम्भव है ? वह कौन सा उपाय है जिससे जीव इस अनादि सम्बन्ध को तोड़ सकता है ? योगीन्दु मुनि इसका सरल उपाय बताते हैं। उनका कहना है कि जो व्यक्ति अपने कर्मों के फल को भोगता हुआ भी मोह के कारण उनके प्रति राग-द्वेष रखता है, वह नए कर्मों में फंसता चला जाता है, किन्तु जो उदय और प्राप्त कर्मों में राग-द्वेष नहीं करता अर्थात् कर्मों के फल को भोगता हुआ भी जो जीव राग-द्वेष को नहीं प्राप्त होता, वह नए कर्मों में नहीं बँधता और उसके पुराने कर्म भी नष्ट हो जाते हैं :
भुजतु वि णिय कम्म फलु मोहहं जो जि करेइ । भाउ असुन्दरु सुन्दरु वि सो पर कम्मु जणेइ ॥ ७६ ॥ भुजतु वि णिय-कम्म-फल जो तहि राउण जाइ। सो व बंधइ कम्मु पुणु संचित जेण विलाइ ॥८०॥
(परमात्म० द्वि० महा० ) 'योगसार' में भी कहा गया है कि जिस प्रकार कमल पत्र जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार यदि आत्मस्वभाव में रति हो अर्थात् विषयों और तज्जनित फलों के प्रति आसक्ति न हो तो जीव कर्मों से लिप्त नहीं होता।