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पञ्चम अध्याय
पुद्गल द्रव्य छः प्रकार के होने हैं। योगीन्दु मुनि ने कहा है कि पुद्गल छ: प्रकार के हैं, मूर्तीक हैं, अन्य सब द्रव्य अमूर्त है (पग्मान्मप्रकाश द्वि० महा० दोहा नं० १९)। छः भेद इस प्रकार है-१, बादरवादर ३ बादर (३, बादरसूक्ष्म (४) सूक्ष्मवादर ५) सूक्ष्म (६) सूक्षणमुक्ष्म । पन्थर, बाट, तृण आदि बादर बादर हैं, इनके टु ड़े होकर नहीं जुड़ते। जल, पी. तेल प्रादि बादर हैं, जो अलग होकर फिर मिल सकते हैं। छाया, पानप, चाँदनी बादमुक्ष्म हैं, जो कि देखने में बादर, किन्तु ग्रहण करने में सुक्ष्म है। नेत्र को छोडकर, चार इन्द्रियों के विषय रस गंधाद मूक्ष्मवादर हैं जो कि देखने में नहीं आते, किन्तु ग्रहण करने में आते हैं। कर्मवगणा सूक्ष्म है, जो दृष्टि में नहीं आते। परमाणु मुश्मसूक्ष्म हैं, जिनका दूसरा भाग नहीं हो सकता। ये छहों प्रकार के पुद्गल जोव से भिन्न होते हैं। किन्तु सामान्यतया जीव यह भेद जान नहीं पाता। पौद्गलिक कृत्यों को अपना कार्य समझता रहता है। इसोलिए नाना प्रकार के दुःखों और कर्मों की सृष्टि होती रहती है।
धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य
धर्म और अधर्म का तात्पर्य पुण्य पाप नहीं है। जैन दर्शन में यह एक प्रकार के विशिष्ट तत्व हैं, जो अन्य किसी भी दर्शन में नहीं पाए जाते । जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य का विवेचन हो चुका है।। ये दोनों द्रव्य गतिशील बताए गये हैं। अतएव यह आवश्यक है कि इनकी गतियों की कोई सीमा रेखा हो। साथ ही इनकी स्थिति और गति के लिये कोई सहायक तत्व हो । अतएव इन द्रव्यों के जो चलने में सहायक होता है, वह धर्म द्रव्य है और जो ठहरने में सहायता करता है वह अधर्म द्रव्य है। ० महेन्द्रकुमार ने लिखा है कि 'अनन्त आकाश में लोक के अमुक आकार को निश्चित करने के लिये यह आवश्यक है कि कोई ऐसी विभाजक रेग्वा, किमी वास्तविक आधार पर निश्चित हो. जिसके कारण जीव और पुद्गलों का गमन वहीं तक हो सके, बाहर नहीं। इसी लिये जैन आचार्यों ने लोक और अलोक के विभाग के लिये लोकवर्ती आकाश के बराबर एक अमूर्तीक निष्क्रिय और अखण्ड धर्म द्रव्य माना है। जो गतिशील जीव और पुद्गलों को गमन करने में सहायक कारण होता है।.... जिस प्रकार गति के लिये एक साधारण कारण धर्मद्रव्य अपेक्षित है, उसी तरह जीव और पुद्गलों की स्थिति के लिये भी एक साजारण कारण होना चाहिये और वह हैअधर्म द्रव्य ।
पुद्गल की संगति कर, पुद्गल ही सौ प्रीति।। पुद्गल को आप गणे, यहै भरम की रीति ||१७|| जे जे पुद्गल की दशा, ते निज मानै हंस । याही भरम विभाव सों, बढ़े करम को वंस ॥१८॥
(बनारसीदास, कर्मछत्तीमी, पृ० १३८) १. श्री महेन्द्रकुमार म्यायाचाय-जैनदर्शन, पृ० १८६