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पञ्चम अध्याय
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जीव:
जीव या प्रात्मा चेतन द्रव्य है। रूप. रस, गन्ध और मर्गविहीन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जीव चैतन्य स्वरूप है, जानने देखने रूप उपभोग वाला है, प्रभु है, कता है, भोक्ता है और अपने शरीर के बराबर है। यद्यपि वह अमूर्त है तथापि कर्मों से संयुक्त है। इस गाथा में जीव के समस्त लक्षणों को स्पष्ट कर दिया गया है। जीव चेतन है अर्थात वह प्रत्येक कार्य को देखता
और सुनता है। चेतनता, बुद्धि, ज्ञान आदि उसी की पर्याय हैं। प्रात्मा स्वयं कर्मों का कर्ता है और उनके फलों का भोता है। मांख्य दर्शन की तरह, वह अकर्ता और अपरिणामी नहीं है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि आत्मा मूर्ति में रहित है, ज्ञानमयी है, परमानन्द स्वभाव वाला है, नित्य है और निरंजन है। कहने का तात्पर्य यह कि आत्मा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाली मूर्तियों से भिन्न है। वीतरागभाव परमानन्द रूप अतीन्द्रिय सुख स्वरूप अमृत रस के स्वाद से समरसीभाव से संयुक्त है तथा रागादि रूप अंजन से रहित निरंजन है । भैया भगवतीदास ने जीव द्रव्य को चेतन द्रव्य नाम ही दिया है। प्रापने कहा है कि छठा चेतन द्रव्य है, दर्शन, ज्ञान चरित्र जिसका स्वभाव है। अन्य द्रव्यों के संयोग से यह शुद्धाशुद्ध अवस्था को प्राप्त होता रहता है। इससे स्पष्ट है कि जीव अपने संस्कारों के कारण स्वयं बँधा है और अपने ही पुरुषार्थ से स्वयं छुटकर मुक्त हो सकता है। इस आधार पर जीव की दो श्रेणियाँ बनाई जा सकती हैं-(१)संसारी, जो अपने संस्कारों के कारण नाना योनियों में शरीर धारण करके जन्म मरण रूप से घूम रहे हैं और (२ : सिद्ध या मुक्त, जो समस्त कर्म व्यापारों से मुक्त होकर शुद्ध चैतन्य रूप में स्थित है। बनारसीदास ने
अपने गुण परजाय में, बरतें सब निरधार । की काहू मेटे नहीं, यह अनादि विस्तार ।। ३.! है अनादि ब्रह्मांड यह, छहों द्रव्य को वास । लोकहद्द इनते भई, आगे एक अकास ॥ १० ॥
-भैया भगवतीदास-ब्रह्मविलास ( अनादि बत्तीसिका )पृ०२१७-१८ । . १. जीवो त्ति हर्वाद चेदा उवओगविसे सिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमत्तो ण हि नुत्तो कम्मसंजुतो ।। २७ ।।
(कुन्दकुन्द-पंचास्तिकाय) २. नुत्ति विहणउ णाणमउ परमाणंद सहाउ । णियमि जोइय अप्पु गुण णिच्चु णिरंजणु भाउ ।। १८ ।।
-योगीन्दु मुनि-परमात्मप्रकाश (द्वि० महा.), पृ० १४७ । ३. पष्ठम चेतन द्रव्य है, दर्शन ज्ञान स्वभाय ।
परणामी परयोग सों, शुद्ध अशुद्ध कहाय ॥६॥ (ब्रह्मविलास, पृ० २१८)