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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
'हित सू अर्थ बताइयो सुगुर सतरासै अट्ठानवे, वदि तेरस ज्ञान वान जैनी वसै, वसै बहु मिलै, मरख
बिहारीदास | कार्तिक मास ॥५०॥ गरे माहिं । कोई नाहिं ॥ ५१ ॥ पय उपसम वलि मैं कहे, द्यानति अक्षर एह । देपि संबाधे पंचासिका, बुधजन सुध करि लेहु ॥५२॥ । इति संबोध पंचसिका को ढाल्यो सम्पूर्ण || किन्तु यह रचना संवत् गलत प्रतीत होता है । सम्भवत: 'अट्ठावनै' को भूल से लिपिकार ने 'अट्टानत्रै' लिख दिया है। वास्तव में इसका रचनाकाल सं० १७५८
। श्री अगरचन्द नाहटा के शास्त्र भांडार में गुटका नं० ७० में इस ग्रन्थ की एक हस्तलिखित प्रति सुरक्षित है। उनमें भी रचना सं० १७५८ ही दिया गया है ।
ग्रन्थ :
धर्म या द्याविलास - यह आपका प्रसिद्ध संग्रह है। इसमें कवि ने अपनी छोटी बड़ी ४५ रचनाओं को सं० १७८० में संग्रहीत किया था । इनमें अधिकांश रचनाएँ जैन धर्म और पूजा-पाठ सम्बन्धी ही हैं । श्री नाथूराम प्रेमी ने इसको जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई से फरवरी १९१४ में प्रकाशित किया था। इसके 'निवेदन' में आपने लिखा है कि ' इसमें (धर्मविलास ) के कई अंग जुदा छप गए हैं और इसलिए उनको इसमें शामिल करने की आवश्यकता नहीं समझी गई ।” जुदा छपने वाली रचनाओं में एक विशालकाय 'जैद पद संग्रह ' है, जिसमें ३३३ पद हैं । ( इसके ९० पद 'जिनवाणी प्रचारक कार्यालय' से भी 'द्यानत पद संग्रह' नाम से प्रकाशित हुए हैं । ) पदों के अतिरिक्त दूसरा अंश 'प्राकृत द्रव्य संग्रह' का पद्यानुवाद, तीसरा 'चरचाशतक' और चौथा 'भाषा पूजाओं' का संग्रह है ।
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आगमविलास - आपकी दूसरी रचना है। इसका संकलन उनकी मृत्यु के पश्चात् पं० जगतराय द्वारा किया गया था। कहा जाता है कि द्यानतराय की मृत्यु के पश्चात् उनकी रचनाओं को (द्यानतविलास के प्रतिरिक्त) उनके पुत्र लाल जी ने आलमगंजवासी किसी भाझ नामक व्यक्ति को दे दिया। पं० जगत
१. हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का पन्द्रहवां त्रैमासिक विवरण, पृ० १३० |
२.
वीरवाणी - वर्ष ५, अंक २ - ३ ( मई-जून १६५१ ) में श्री नाहटा जी का लेख – 'हमारे संग्रहालय में दि० ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ, पृ० ४७ । ३. द्यानतराय – धर्मविलास, (निवेदन) पृ० १ |
४. यानतराय – बनवन्द संग्रह - जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, हरीसेनरोड,
कलकत्ता, ७ ।