________________
१०८
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
कभी सच्चे मार्ग का प्रदर्शन करते हुए। वह कहता है कि सामान्यतया व्यक्ति चर्म चक्षुत्रों से 'मार्ग' खोजने का प्रयास करते हैं, किन्तु जिनके दूसरे नेत्र ( विवेक के नेत्र) खुल जाते हैं, वही दिव्य विचार के पुरुष हैं । सांसारिक पुरुषों की परम्परा के ज्ञान पर दृष्टि रखना तो अंधों के पीछे अंधे का दौड़ना है । इसी प्रकार तर्क या विचार तो वादों की परम्परा मात्र है, जिसका अंत नहीं । वास्तविक तत्व को जानने वाला तो कोई विरला ही होता है ।' 'श्री सुमतिनाथ जिन स्तवन' में वह 'आत्मा' के स्वरूप पर प्रकाश डालता है, वहिरात्मा का परित्याग कर, अन्तरात्मा के द्वारा 'परमात्मा' की अनुभूति का पथ बताता है । संत साहित्य के प्रमुख पारखी आचार्य श्री क्षितिमोहन सेन ने इन स्तवनों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए बड़े ही सुन्दर शब्दों में लिखा है कि 'आनन्दघन ने अपनी रचित 'चौवीसी' में जैन तीर्थङ्करों की स्तुति की है, किन्तु उनमें जैन स्तुति की अपेक्षा वे अपनी मानसिक समस्याओं को लेकर ही अधिक व्यस्त दिखाई देते हैं । उस समय जैन धर्म नियम और अनुशासन के वज्र बंधन में रुद्धश्वास हो उठा था । इन 'पक्षवादियों' के दुःसह बंधन को तोड़कर आनन्दघन निष्पक्ष 'सहज सरल साधना' के लिए व्याकुल हो उठे होंगे' ।
आनन्दघन बहोत्तरी :
यह आपकी दूसरी रचना है । नाम के अनुसार इसमें ७२ पद होने चाहिए | किन्तु भिन्न-भिन्न प्रतियों में इसकी पद संख्या भिन्न-भिन्न पाई जाती है । श्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने तीन प्रकाशित प्रतियों के आधार पर 'वहोत्तरी'
१.
२.
चरम नयन करि मारग जोवतां रे भूलो सयल संसार । जैसे नग करि मारग जोइयो रे नयण ते दिव्य विचार || पुरुष परंपर अनुमान जोवतां रे अंधोअंध पुलाय । वस्तु विचारे रे जो आागमै करी रे चरण धरण नहीं ठाय || तर्क विचारे रे वादपरंपरा रे पार न पोहचे कोय । अभिमत वस्तु रे वस्तुगतें कहे रे ते बिरला जग जोय ॥
( नानन्द और आनन्दघन - श्री अजितनाथ जिन स्वतन, पृ० ३३४ )
त्रिविध सकल तनुधर गत श्रातमा, बहिरातमा धुरि भेद । बीजो अंतर श्रातम, तिसरो परमातम अविछेद ॥ श्रातम बुद्धि कायादिक ग्रहयो, बहिरातम अधरूप | कायादिक नो साखीधर रह्यो, अंतर आतम रूप ।। ज्ञानानंद हो पूरण पावनो बरजित सकल उपाध । अतिंद्रिय गुणगणमथि आगरु इम परमातम साध ॥ बहिरातम तजि अंतर आतमा रूप थई थिर भाव | परमातम नूं हो आतम भाववृं आतम अरपण दाव ||
३. बीणा, वर्ष
( श्री सुमतिनाथ जिन स्तवन, पृ० ३३६ ) १२, अंक १ ( नवम्बर १९३८ ) पृ० ७ ।