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________________ १०६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद के जन्मस्थान का पता नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि मध्यकालीन सन्तों ( जिनमें अधिकांश अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित थे तथा देश के विभिन्न भागों की यात्रा करते रहते ) की रचनाओं में प्रायः विभिन्न भाषात्रों और बोलियों के शब्द आ जाते थे । पूर्वी प्रदेश में पैदा होने वाले कबीर की रचनाओंों में राजस्थानी, पंजाबी, गुजराती आदि भाषाओं के ही नहीं, विदेशी भाषाओं के शब्द भी बहुलता से पाए जाते हैं । वस्तुतः कबीर, आनन्दघन तथा अन्य सन्तों के द्वारा प्रयुक्त भाषा उस समय की जन सामान्य की भाषा थी, जिसका प्रयोग न केवल उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में होता था, अपितु दक्षिण के साधक भी उसका प्रयोग करते थे । आचार्य श्री क्षितिमोहन सेन ने ठीक ही लिखा है कि 'उस युग में भारतवर्ष में एक सार्वभौम सांस्कृतिक भाषा थी । एक प्रकार की अपभ्रंश भाषा बंगाल के पुराने वौद्ध गानों और दोहों में दिखाई देती है । प्रायः इसी से मिलती जुलती अपभ्रंश भाषा, इसी युग में राजपुताना, गुजरात, महाराष्ट्र यहाँ तक कि कर्नाटक में प्रचलित थी ' ।' इसके अतिरिक्त निश्चित रूप से यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ग्रानन्दन जी की मूल रचना कैसी थी और उसमें लिपिकर्ता अथवा संग्रहकर्ता के द्वारा कितना परिवर्तन कर दिया गया । ग्रापकी रचनाों में गुजराती, राजस्थानी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का जो वाहुल्य पाया जाता है, बहुत सम्भव है, वे उनके परवर्ती विभिन्न क्षेत्रीय भक्तों और लिपिकों द्वारा अनायास ही आ गए हों। गुजरात में उनके पदों का काफी प्रचार रहा है । इधर उनकी रचनाओं के जितने संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें अधिकांश गुजराती क्षेत्र के ही हैं । प्रतएव भाषा के आधार पर उनके जन्मस्थान के सम्वन्ध में कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । विजय नामक जैन विद्वान् के अनुसार आनन्दघन ने गच्छ में दीक्षा ग्रहण की थी। कुछ लोगों का कहना है कि उनका वास्तविक नाम 'लाभानन्द' था और वे अपने पदों में ही 'आनन्दघन' शब्द का प्रयोग करते थे । १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देवचन्द्र नामक एक प्रसिद्ध जैन पंडित हो गए हैं, उन्होंने अपने 'प्रश्नोत्तर' नामक ग्रन्थ में आनन्दघन की रचना का 'लाभानन्द जी' के नाम से उल्लेख किया है। श्री अगरचन्द नाहटा का भी विश्वास है कि 'आनन्दवन' का मूल नाम लाभानन्द था। आप कब तक जीवित रहे और कब आपको मोक्ष लाभ हुआ ? यह भी अज्ञात है। प्रतएव अनुमान का विषय बना हुआ है। सेन जी ने आपका मृत्यु काल सन् १६७५ ई० (सं० १७३२) माना है । किन्तु यदि सं० १७३२ में आनन्दघन जी की मृत्यु हुई होती तो यशोविजय जी ने निश्चित रूप से इस घटना पर शोक व्यक्त किया होता । अतएव मेरा अनुमान है कि ग्रानन्दघन की मृत्युं सं० १७४५ ( यशोविजय का मृत्यु समय ) के वाद ही हुई होगी। १. वीणा, वर्ष १२, अंक १ ( नवम्बर १६३= ) १०६ । २. देखिए – बीवी (पाक्षिक) वर्ष २, अंक ६ (१८ जून १६४८) पृ० ७८ |
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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