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तृतीय अध्याय
(१२) ब्रह्मदीप ब्रह्मदीप खोज में प्राप्त नए कवि है। इनकी दो रचनाओं-अध्यात्म बावनी और मन करहाराम की हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के भिन्न भिन्न मास्त्र भाण्डारों से प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त कुछ फटकल पद भी प्राप्त हए हैं।
'अध्यात्म बावनी' (ब्रहा विनाम) कुछ बड़ी रचना है। इसमें दोहाचौपाई छन्द हैं। इसकी एन. हस्तलिखित प्रति नतू पाकरण जो पाण्डया मन्दिर (जयपूर) के गुट का नं. १४४ मे प्राप्त हुई है। इसके प्रारम्भ में अरहन्तों और सिद्धों की वन्दना है। इसके पश्चात् हिन्दी के वर्षों के क्रम से प्रात्मा. परमात्मा, मोक्ष, सहज साधना आदि का वर्णन है। जैसे :
'झमा झमडि कीए नहिं पावै,
झगड़ा छोड़ि सहज नहि आवै। सहज जि सहज मिले मुख पावै ।
छूट ऋड़ ध्यान मनि लावै ॥२६॥ नना नहि कोई आपली,
घरु परियणु तणु लोइ । जिहि अवारइ घटि बसै,
सो हम अप्पा जोइ ॥२८॥ अन्तिम अंश इस प्रकार है :
'अंछर धातु न विपये,
किथितं बृम्ह विलास ||७|| ॥ इति ब्रम्हदीप कृत अध्यात्म बावनी समस।।
॥ इत्तलम् ॥ 'मनकरहारास' आपकी दूसरी रचना है। इसमें २० पद हैं। इसको एक हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भाण्डार के गुटका नं० २९२२५४ से प्राप्त हुई है। इस गुटके का लेखन काल सं० १७७१ है। इससे अनुमान होता है कि ब्रह्मदीप का आविर्भाव काल १८ वीं शताब्दी के पूर्व होगा।
जैन कवियों ने मन को करहा या करभ मानकर भव-बन में लगी हई विष बेलि को न खाने का उपदेश दिया है। मुनि रामसिंह के 'दोहापाहुड' में अनेक दोहों में 'मनकरहा' रूपक का प्रयोग हुआ है। भगवतीदास ने 'मनकरहा' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना १७ वीं शताब्दी में की थी। इसी प्रकार ब्रह्मदोप ने भी 'मन' को करभ मानते हए 'विश्व वन' में लगी हुई विप बेलि को न खाने का उपदेश दिया है। आरम्भ का अंश इस प्रकार है :
'श्री वीतरागाय नमः मनकरहा भव बनि मा चरइ
तदि विष बेल्लरी बहूत । तह चरंतहं बहु दुख पाइयउ
तब जानहि गौ मीत ॥ मन० ॥१॥