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तृतीय श्रध्याय
नहीं कर पाता । शरीर को ही आत्मा समझने लगता है और उसे ही सभी सुखों का आधार मानने लगता है । वह शरीर और आत्मा में अभिन्न सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। अतएव जब तक स्वपर विवेक नहीं जागृत होता. तब तक जीव और पुद्गल का अंतर बना रहता है। जब तक साधक वेतन को मना से अवगत नहीं हो जाता, तब तक सभी क्रियाएँ निष्फल है। जप-तप आदि बाह्याचार उसी प्रकार निरर्थक हैं, जिस प्रकार कण के बिन तुप का कूटना अथवा शालि विहीन पेन में पानी देना केवल पुस्तकीय ज्ञान से भी सम्यक ज्ञान की प्राप्ति नहीं होगी। साधक को साधना के पथ में गुरु का सहयोग नितान्त रूप सेनीय है। गुरु की कृपा के बिना भवसागर से उद्धार नहीं हो सकता। गुरु ही जीव और अजीव पदार्थों में भेद स्थापित करता है। इन प्रकार आपने गुरु के महत्व को अविकल रूप से स्वीकार किया है।
(३) गीत परमार्थी अथवा परमार्थ गीत - यह एक छोटी सी रचना है। इसमें ६ हैं इसकी एक स्वलिखित प्रति आमेरशास्त्र भांडार के गुटका नं० ५४ में सुरक्षित है। सभी पद आध्यात्मिक हैं। जीवको उद्बोधन दिया गया है। उसे माया मोह आदि से सचेत किया गया है। प्रारम्भ में लिखा है 'गरमार्थ गीत रूपचन्द' पहला पद इस प्रकार है
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चेतन हो चेत न चेऊ गाफिल होइ व कहा रहे
३.
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(४) नेमिनाथ रास - अभी तक अप्रकाशित है। नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन है ।
४.
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काहिन हो । विधिवस हो । ...चेतन हो ॥१॥
१. खीर नीर ज्यूं मिलि रहे, कउन कहइ तनु तुम वन संभाल नहीं होत मिले में स्व पर विवेक नहीं तुम्हइ, परस्पर कहत जु श्रापु । चेतन भति विभ्रम भए रजु विषइ ज्वरं साधु ॥ ४६ ॥ पेन चित परिचर बिना, जर तर
निधु
इसमें २२ वें तीर्थङ्कर
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उद । उस ४०
फिटकर व कल्लू न
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चेतन स्वयं परचड नहीं, कहा भए व्रत धारि । सालि बिहूना खेत की, वृथा बनावति वारि |८|| ग्रन्थ पढ़ें तप तपै, सहे परीसह साहु |
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तर विज्ञान बिनु कहूँ नहीं निरख हु| ६४|| गुरुविन भेदन पायको पद की निज वस्तु गुरुविन भवसागर विपद, परत गहइ को हस्त ||७||
० परमानन्द शास्त्री ने अपने लेख 'पडे रूपचन्द और उनका साहित्य
में इस ग्रंथ की सूचना दी है। कि रचना रूपचन्द की है या रूपचन्द का ही अस्तित्व स्वीकार किया है और सभी
यह निश्चित रूप से पाण्डे रूपचन्द की
।
नहीं कहा जा सकता
शास्त्री जी ने एक रचनाओं को 'पाएंडे