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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
प्रिय जिनदेव है तो वह उनकी वाणी, प्रिय भोगी है तो वह भुक्ति और प्रिय जोगी है तो वह मुद्रा :
जो पिय जाति जाति मम सोइ ।
जातहिं जात मिले सब कोइ ॥१८।। पिय मोरे घट, मै पिय मांहि ।
जल तरंग ज्यों द्विविधा नाहि ॥१६॥ पिय मों करता मैं करतूति ।
पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥२०॥ पिय सुखसागर मैं सुखसीव ।
पिय शिवमन्दिर मैं शिव नींव ॥२१॥ पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम ।
पिय माधव मैं कमला नाम ॥२२।। पिय शकर मैं देवि भवानि ।
पिय जिनवर मैं केवल बानि ॥२३॥ पिय भोगी मैं मुक्ति विशेष । पिय जोगी मैं मुद्रा भेष ॥२४॥
(बना० वि०, पृ० १६१) इस प्रकार बनारसीदास के विचार सन्त कवियों से मेल खाते हैं। आपकी गणना कबीर, दादू, सुन्दरदास, गुलाल साहब, धर्मदास आदि सन्त कवियों में की जा सकती है। परम्परागत जैन मतवाद का ही पिष्ट पेषण न करके, आपने मौलिक चिन्तना और उदार वत्ति का परिचय दिया है। वस्तुत: आप हिन्दी भक्ति काव्य के स्वर्णिम युग में पैदा हुए थे, जबकि अनेक पूर्ववर्ती और समकालीन सन्तों की विचार धाराओं का समाज पर प्रभाव पड़ रहा था। सन्त सुन्दरदास आपके समकालीन थे। यह भी कहा जाता है कि दोनों में मित्रता भी थी। जब दोनों एक दूसरे के सम्पर्क में आए थे तो एक दूसरे के विचारों से प्रभावित भी हा होंगे। दोनों के काव्य में विचार साम्य के अनेक स्थल पाए भी जाते हैं। शरीर और आत्मा का सम्बन्ध, मन की स्थिति, संसार की नश्वरता राम के सर्वव्यापक और अद्वैत रूप आदि पर दोनों के विचार एक समान हैं। प्राचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस विचार साम्य की ओर संकेत किया है।' बनारसीदास को इस क्रियाकाण्ड खण्डन और उदर अभिव्यक्ति के लिए, जो कहीं-कहीं पर मान्य जैन सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं है, अनेक जैन विद्वानों का विरोध भी सहन करना पड़ा था। कुछ लोगों ने इनको 'अध्यात्मी या वेदान्ती' कहना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि आपके समकालीन मेघविजय उपाध्याय नमक श्वेताम्बर साधु ने प्राकृत भाषा में 'युक्ति प्रवोध' नामक एक नाटक लिखकर, आपके विरुद्ध प्रचार किया था कि बनारसीदास एक नवीन पन्थ का प्रवर्तन कर रहे हैं जो 'बनारसी या अध्यात्मी' पन्थ कहलाता है।
१. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० २०६ ।