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है, जिसमें खोज में प्राप्त अपभ्रंश और हिन्दी की लगभग १५ नई रचनाओं के हस्तलेखों से उद्धृत अंश दिए गए हैं।
मेरे इस शोध कार्य की एक लम्बी कहानी है। यह कार्य सन् १९५७ में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में प्रारम्भ हुआ था। किन दुर्भाग्यवश सन् १९६० ई० के मई-जून मास में पूज्य द्विवेदी जी को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा। अतएव मेरे कार्य में कुछ समय के लिए बाधा उत्पन्न हो गई। मुझे ऐसा लगा कि योग्य निर्देशक के अभाव में अब मेरा कार्य अधूरा ही रह जाएगा। किन्तु पूज्य द्विवेदी जी और श्रद्धेय डा० मुन्शीराम शर्मा की कृपा से मैं समस्त कठिनाइयों को पार कर सकने में सफल हो सका।
मेरे मार्ग में दूसरी बाधा विषय सामग्री सम्बन्धी थी। मेरा विषय ऐसा है जिस पर अभी तक कोई विशेष उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ है। पूरा का पूरा जैन काव्य प्राय: उपेक्षित ही रहा है । किसी भी अधिकारी विद्वान् ने इस विषय से सम्बन्धित किसी प्रश्न पर विस्तार से विचार नहीं किया है। अतएव मेरे सामने समस्या थी कि कार्य कैसे प्रारम्भ किया जाय? लेकिन पूज्य द्विवेदी जी ने मार्ग दर्शन किया। उनके आदेश से मैंने जैन विद्वानों से सम्पर्क स्थापित करना प्रारम्भ किया। आज मुझे यह कहने में अत्यन्त हर्ष और गौरव का अनुभव हो रहा है कि मैंने जिन जैन और जैनेतर विद्वानों से जिस प्रकार की सहयोग की कामना की, उसकी पूर्ति तत्क्षण हो गई। ऐसे महानुभावों में पं० चैनसुखदास जी न्यायतीर्थ ( अध्यक्ष, दिगम्बर जैन संस्कृत कालेज, जयपुर) का नाम सर्वप्रथम उल्लेखनीय है। उनकी कृपा से न केवल जैन रहस्यवाद की स्थूल रूपरेखा का ही आभास मिला, अपितु उन्होंने मेरे लिए जयपुर के लगभग सभी हस्तलिखित ग्रन्थों के भाण्डारों को भी सूलभ कर दिया। जयपूर में काफी समय तक रहकर, मैंने वहाँ के आमेर शास्त्र-भाण्डार, दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ा तेरह पंथियों का शास्त्र-भाण्डार, छावड़ों के मन्दिर का शास्त्र-भाण्डार, बधीचन्द मन्दिर का शास्त्र-भाण्डार, लुणकरण जी पाण्डया मन्दिर का शास्त्र-भाण्डार और ठोलियों के मन्दिर का शास्त्र-भाण्डार देखा। इनसे मुझे अपने विषय की काफी हस्तलिखित सामग्री उपलब्ध हो सकी। इस कार्य में मुझे जयपुर स्थित श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महाबीर जी' नामक संस्था के अधिकारी श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल से भी पर्याप्त महायता मिली। उक्त दोनों सज्जनों के प्रयास से मुझ जैन साहित्य सम्बन्धी दो प्रमुख पत्रिकाओं 'वीरवाणी' और 'अनेकान्त' की पुरानी फाइलें भी देखने को मिल गईं। एतदर्थ मैं आप दोनों को हार्दिक धन्यवाद देता हूं। जैन साहित्य के प्रमुख उद्धारक श्री अगरचन्द नाहटा ने भी अपने बीकानेर स्थित 'अभय जैन ग्रन्थालय' में सुरक्षित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूचना देकर मेरे कार्य में महायता दी। अतएव वह मेरे धन्यवाद के पात्र हैं। मुझे इस सम्बन्ध में राजाराम कालेज, कोल्हापुर के श्री ए० एन० उपाध्ये और प्राकृत जैन विद्यापीठ, मुररकार के संचालक तथा जैन साहित्य के अधिकारी विद्वान डा० हीरालाल