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________________ 84 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय अनाथ मुनि द्वारा ऐसा कहने पर श्रेणिक का चित्त अत्यन्त व्याकुल बन गया । मन मे सोचता है, एक तरफ यह मुझे मगध नरेश कहता है और दूसरी ओर मुझे ऐसा क्यो इस प्रकार विस्मयान्वित व्याकुल चित्त से वह मुनि से बोला-मुनि । मेरे पास अश्व, हस्ती, अनेक परिकर और विशाल अन्त पुर है। मैं अपने अन्त पुरALVIII मे उत्तम मानवीय ऋद्धि का भोग कर्ता हूँ। मेरा आदेश सभी के लिए सर्वोपरि है और मेरा प्रभुत्व भी । भोगो की श्रेष्ठ सम्पदा मेरे चरणो मे समर्पित रहती है। इतना होने पर भी मैं अनाथ कैसे हूँ? भगवन् आप कम-से-कम मिथ्या तो मत बोलो। मुनि - हे पृथ्वीपाल ! तुम अनाथता को नहीं जानते कि सनाथ राजा भी अनाथ हो सकता है। राजन् ! तुम एकाग्र चित्त होकर सुनो कि वास्तव मे मनुष्य अनाथ कैसे हो सकता है ? और मैंने आपको अनाथ क्यो कहा? राजन् । प्राचीनकालीन नगरियो मे असाधारण अद्वितीय कौशाम्बी XLIX नामक नगरी थी । उसमे प्रचुर धन वाले मेरे पिता निवास करते थे । उनके घर मे लक्ष्मी सदैव क्रीडा करती रहती थी । मैं भी शनै - शनै वहॉ वृद्धि को प्राप्त होने लगा । युवावस्था मे मैंने प्रवेश ही किया था कि एक दिन मेरे नेत्रो मे असाधारण पीडा होने लगी। इतनी जबरदस्त पीडा कि जिसने मेरे पूरे गात्र मे असाधारण जलन पैदा कर दी। राजन् ! क्या बताऊँ, वह कैसी पीडा थी, मानो कोई शत्रु क्रुद्ध होकर नाक-कानादि छिद्रो मे परम तीक्ष्ण शस्त्र धोप दे, उससे जो भयकर वेदना होती है, वैसी वेदना मेरी आँखो मे हो रही थी । आँखो की वेदना के साथ-साथ वज्र के प्रहार के समान घोर और परम दारुण वेदना मेरी कमर, हृदय और मस्तिष्क मे हो रही थी । मैं वेदना से छटपटा रहा था। तडफ रहा था। एक-एक पल निकालना भारी पड रहा था । तब मेरे पिता ने मेरी वेदना को उपशात करने के लिए विद्या और मत्र से चिकित्सा करने वाले मात्रिको एव जडी-बूटी से चिकित्सा करने मे विशारद, शास्त्र कुशल, आयुर्वेदाचार्यो को जगह-जगह से बुला लिया । उन्होने जिस प्रकार से मेरी वेदना उपशात होती हो, वैसी मेरी चतुष्पाद (वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक रूप ) चिकित्सा की, लेकिन राजन् । वे मेरी पीडा नहीं मिटा सके, यही मेरी अनाथता है । LX .... तब मेरे पिता ने मेरे कारण उन चिकित्सको को समस्त सार-भूत वस्तुएँ दे दी कि तुम ये सब ले लो, लेकिन मेरे लाल को ठीक कर दो..... ठीक कर दो..... किन्तु तब भी वे चिकित्सक मुझे रोग मुक्त न कर सके, यह मेरी अनाथता है। (क) परिकर परिजन, नौकर-चाकर ..
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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