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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 77 डाल दिया गया फिर भी यह चन्द्र की भॉति सुशोभित हो रहा था, इसलिए इसका नाम अशोकचन्द्र एव एकान्त उकरडे मे फेके जाने पर अगुली का ऊपरी भाग मुर्गे की चोच से छील गया था, अतएव इसका नाम कूणिक हो।
तब सभी उसे कूणिक के नाम से पुकारने लगे। वह कूणिक क्रमश राजघराने मे निरन्तर बडा होने लगा। तत्पश्चात् कुछ दिनों पश्चात् चेलना महारानी ने क्रमश हल-विहल नामक दो शूरवीर पुत्रो को जन्म दिया। वे भी क्रमश बड़े होने लगे। चेलना महारानी के मन में कूणिक के प्रति अब भी द्वेष समाप्त नही हुआ। वह कूणिक को पिता का द्वेषी समझकर उसे गुड के लड्डू तथा हल-विह्वल को शक्कर के लड्डू खिलाती थी। इससे कूणिक यह समझता था कि पिता मेरे साथ पक्षपात कर रहे हैं, परन्तु पिता श्रेणिक कभी भी कूणिक के साथ पक्षपात नहीं करते थे।
इस प्रकार कूणिक युवा हो गया तब माता-पिता ने पद्मावती आदि आठ राजकन्याओ के साथ उसका विवाह सम्पन्न किया ।132 वह अपनी महारानियो के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोग भोगने लगा और समय-समय पर भगवान् महावीर के दर्शन कर स्वय को कृतार्थ बनाने लगा। पयोधर पिपासा :
मगध सम्राट् श्रेणिक उस समय का महान पराक्रमी राजा था। उसके अन्त पुरमे अनेक महारानियाँ थी, जिन्होने शूरवीर, त्यागी, वैरागी अनेक पुत्रो को जन्म दिया और उन्हे जिन-शासन मे समर्पित किया।
उन्हीं महारानियो की शृखला मे एक महारानी थी-धारिणी। धारिणी अत्यन्त सुकोमल मानोन्मान प्रमाणा गात्र वाली थी। उसका मनोहारी वदन चन्द्रकला को भी अभिभूत करने वाला था। सचिक्कण केश राशि कपोलो पर मधुपों" के समान क्रीडा करती थी। तिस पर सज्जित कुण्डल बरबस मन की गति का हरण करते थे। तनुकटि कमनीयता को धारण किये त्रिवली से युक्त थी। अग-प्रत्यग के कटाक्ष मनमोहक थे। गात्र के समान ही मधुर स्वभाव वाली वह अत्यन्त सरलमना एव अपने समर्पित वचनो से सम्राट् श्रेणिक को मत्र मुग्ध बनाने वाली थी।
राजा श्रेणिक प्रत्येक ऋतु मे उसके शरीर की विशेष रूप से सम्हाल करता रहता था। यौवन अपने आनन्द की समरसता से व्यतीत हो रहा था। इसी योवनावस्था से सपृक्त धारिणी महारानी एक बार अपने शयनकक्ष मे शयन कर
(क) अन्त.पुर- रानियो का निवास गृह (ल) मधुप-भ्रमर
(ख) सचिक्कण-चिकने (घ) त्रिवली- नाभि पर बनी तीन रेखाएँ