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44 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग- द्वितीय
28 महामारी, हैजा, प्लेगादि का उपद्रव नहीं होता । 29 स्वदेश के राजा और सेना का भय नहीं होता । 30 परचक्र, शत्रु, राजा और सेना का भय नहीं होता । 31 अतिवृष्टि का अभाव होता है ।
32. अनावृष्टि का अभाव होता है ।
33 दुष्काल का अभाव होता है।
34 भगवान् का जहाँ पदार्पण होने वाला हो, वहाँ उनके पदार्पण से पहले ही ईति, भीति, महामारी, स्वचक्र तथा परचक्र का भय समाप्त हो जाता है।
इन चौतीस अतिशयो में दूसरे से पचम पर्यन्त चार अतिशय भगवान् के जन्म से होते है तथा इक्कीस से चौंतीस पर्यन्त एव आभामण्डल - ये पन्द्रह अतिशय चार कर्मों के क्षय से केवलज्ञान होने पर होते हैं । तीर्थकर भव की अपेक्षा होने वाले अतिशयो के अतिरिक्त शेष 6 से 20 तक 12वे अतिशय को छोडकर 14 अतिशय देवकृत होते हैं । 80
भगवान् महावीर के 34 ही अतिशय प्रकट हो गये। इस उत्कृष्ट पुण्य प्रकृति का उपभोग प्रभु कर रहे हैं।
उनके सत्य वचन के पेतीस अतिशय कहे गये हैं
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1 सस्कारत्व –तीर्थंकर भगवान् सस्कारयुत् वचनो का प्रयोग करते हैं। उदात्तत्व- भगवान् ऐसे उच्च स्वर से बोलते हैं कि एक योजन बैठी परिषद उनका उपदेश भली-भाँति श्रवण कर लेती है ।
उपचारोपेतत्व-भगवान् के वचन तुच्छता रहित होते है ।
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गम्भीर शब्दत्व - प्रभु की वाणी मेघ गर्जना के समान गम्भीर होती है। अनुनादित्व - जैसे गुफा मे बोलने से प्रतिध्वनि उठती है, वैसी भगवान् की वाणी की प्रतिध्वनि उठती है ।
6 दक्षिणत्व - भगवान् के वचन सरलता से युक्त होते हैं।
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उपनीत रागत्व-मालकोशादि राग से युक्त वचन होते हैं।
ये सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से जानने चाहिए । अन्य सारे वाणी
के अतिशय अर्थ की अपेक्षा से जानने चाहिए ।
महार्थत्व-वचन महान् अर्थ वाले होते हैं ।
अव्याहतपौर्वापर्यत्व- भगवान् के वचन परस्पर अविरोधी होते हैं ।
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10 शिष्टत्व- भगवान् के वचन शिष्टता युक्त होते हैं । 11 असदिग्धत्व - असशय युक्त वचन होते हैं ।