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42 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय
18 नवीन ज्ञान का अभ्यास करते रहने से। 19 श्रत ज्ञान की भक्ति तथा बहमान करने से। 20 प्रवचन की प्रभावना करने से।
इन बीस बोल की उत्कृष्ट आराधना करने से तीर्थंकर, मध्यम आराधना से गणधर तथा जघन्य आराधना से आचार्यादि पदवी प्राप्त करता है। प्रभु महावीर ने भी इन सबकी आराधना कर तीर्थंकर पद को प्राप्त किया। तीर्थंकर भगवान् का अतिशय प्रभाव रहता है। आतिशयिक प्रभाव के द्योतक उनके चौंतीस अतिशय इस प्रकार हैं - 1 अवस्थित केश-श्मश्रु रोम, नख, केश आदि अशोभनीय रूप से नहीं
बढना। 2. निरोग-निर्मल शरीर होना। 3 गाय के दुग्ध के समान रक्त-मास होना। 4 श्वासोच्छ्वास पद्म-कमल की सुगध के समान सुगन्धित होना।। 5 आहार-निहार चर्म-चक्षुओ से अदृष्ट होना, लेकिन विशेषता यह है
कि अवधिज्ञानी तीर्थंकर भगवान् के आहार-निहार को अपने ज्ञान से
देख सकता है। 6 आकाश मे धर्म-चक्र का चलना। 7 आकाश मे गमन करते हुए तीन छत्रो का रहना। 8 आकाश मे अत्यन्त स्वच्छ स्फटिक मणि के समान प्रकाशमान श्वेत
चामरो का ढोलना। आकाश के समान अत्यन्त स्वच्छ पाद-पीठयुक्त स्फटिक सिहासन
का होना। 10 आकाशगत उच्च अनेक लघुपताकाओ से परिमण्डित अभिरमणीय
इन्द्रध्वजा (शेष ध्वजाओ की अपेक्षा अति महान् होने से इसे इन्द्रध्वजा
कहा है) भगवान् के आगे चलना। 11 जहाँ तीर्थंकर भगवान् विराजते हैं वहाँ तत्क्षण पत्र, पुष्प, पल्लव से
युक्त छत्र, ध्वजा, घटा और पताका से युक्त देवनिर्मित श्रेष्ठ अशोक
वृक्ष होना। 12. मस्तक के पीछे दिव्य तेजोमण्डल होना। 13 तीर्थकर भगवान् जहाँ विचरण करते हो वहाँ बहु समरमणीय भूमि
भाग होना।