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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 40 मान-मूरण! गुणरत्न शील सागर! अनन्त! अप्रमेय-अपरिमित ज्ञान तथा गुणों से युक्त! धर्मतीर्थ के चातुरन्त चक्रवर्ती! अर्हत् आपको नमस्कार हो। इन शब्दों द्वारा वंदन, नमन कर, न सन्निकट, न दूर रहकर शुश्रूषा, पर्युपासना करता है।10
अच्युतेन्द्र के पश्चात् क्रमशः ईशानेन्द्र, शक्रेन्द्र-पर्यन्त सभी देव एवं भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क इन्द्र क्रमशः अपने-अपने परिवार सहित अभिषेक कृत्य करते हैं।
तब देवराज ईशान पांच ईशानेन्द्र की विकुर्वणा करता है। एक ईशानेन्द्र भगवान् को हथेलियों में उठाता है। उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठाता है। एक ईशानेन्द्र पीछे छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र दोनों ओर चंवर दुलाते हैं। एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खड़ा रहता है।
अब मुझे तीर्थंकराभिषेक करना है, ऐसा चिन्तन कर देवराज इन्द्र शक्रेन्द्र अपने सेवक देवों को बुलाकर अभिषेक सामग्री मंगवाता है। तब अत्यन्त मनोरम, रमणीय, श्वेत चार वृषभों की विकुर्वणा करते हैं | चारों बैलों के आठ सींगों से आठ जलधाराएं निकलती हैं जो ऊपर मिलकर एक श्वेत धारा का रूप धारण कर लेती हैं और भगवान् के मस्तक पर गिरती हैं। अपने चौरासी हजार सामानिक देव आदि परिवार से युक्त शक्रेन्द्र भगवान् का जन्माभिषेक करता है। अर्हत! आपको नमस्कार हो । यों कहकर वन्दन, नमन, पर्युपासना करता है।
अच्युतेन्द्र के सदृश अभिषेक करता है। तदनन्तर शक्रेन्द्र पांच शक्रों की विकुर्वणा करते हैं, एक शक्र भगवान् तीर्थंकर को हथेलियों में उठाता है। एक शक्र पीछे छत्र धारण करता है। दो शक्र दोनों ओर चंवर ढुलाते हैं। एक शक्र वज लेकर आगे खड़ा रहता है।
तब शक्रेन्द्र अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, अन्य भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क, और वैमानिक देवों और देवियों सहित भगवान् महावीर के जन्म-भवन, जन्म-स्थान पर आते हैं। भगवान् को अपनी माता के पास सुलाते हैं और जो प्रतिरूपक रखा था, उसे उठा लेते हैं। माता की निद्रा भी भंग करते हैं। दो वस्त्र, दो कुण्डल सिरहाने रखते हैं। सुन्दर स्वर्ण, मणि, रत्नादिमय गोलक ऊपर की चांदनी में तानते हैं