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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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यहां यह भी प्रश्न उठता है कि जब प्रभु को भिक्षा मिल ही नहीं रही थी तो प्रतिदिन भिक्षा के लिए प्रभु क्यों जाते? दो-चार दिन छोड़कर भी जा सकते थे । इसका समाधान करते हुए चूर्णिकार ने कहा है "दिवसे - दिवसे य भिक्खायरियं फासेति, किं निमित्तं ? बावीसं परिसहा भिक्खायरियाए उदिज्जंति । आवश्यक चूर्णि; पृ. 317 (क) आवश्यक चूर्णि; पृ. 317-18
(ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ. 294-95
(क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 318
(ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ. 295
(ग) त्रिषष्टि श्लाका पु. चा; पृ. 96-97; जवाहर किरणावली (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 318, आवश्यक मलयगिरी; पृ.
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294-95
(ख) चूर्णिकार जिनदास; मलयगिरि; त्रिषष्टि श्लाका पु. चारित्रकार ने ऐसा ही उल्लेख किया है कि सैनिक ने धनावह सेठ को ही वसुमति को बेचा जबकि दिवाकर चौथमलजी म. सा. भगवान महावीर का आदर्श जीवन, पृ. 316-18 पर ऐसा उल्लेख करते हैं कि वसुमति को वह सैनिक बाजार में बेचने के लिए लाया और उसने सैकड़ों मनुष्यों के बीच बाजार में वसुमति को 500 स्वर्णमुद्राओं में एक वेश्या के हाथ बेच दिया । वसुमति को अपनी शील- रक्षा का विशेष संकट आया दीखा । वह बेचैन हुई और वेश्या के घर जाने से पहले ही वहीं पर धड़ाम से गिर पड़ी। उसी समय शीलरक्षक देवों ने बन्दर का रूप धारण किया और वेश्या के शरीर को नोच डाला। तब वेश्या ने चिन्तन किया कि इसको खरीदने मात्र से यह संकट आया है तब घर पहुंचने पर मेरी क्या दशा होगी। अतः वेश्या ने सुभट से 500 स्वर्णमुद्राएं वापिस ले ली और घर चली गयी । सुभट अब वसुमति को बेचने दूसरे बाजार में ले गया। वहां धनावह सेठ ने पूरे दाम देकर उसे खरीद लिया ।
"अहो इमा सीलचंदणत्ति, ताहे से बितियं पिय णामं कयं चंदणत्ति ।" आवश्यक चूर्णि, जिनदास; पृ. 318
(क) ताए धोरंती ते वाला वड्ढेल्लगा फिट्टा, मा चिक्खल्ले पडिहिंतित्ति तस्स य हत्थे लीलाकट्टतं तेण ते धरिता बद्धाय आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 319