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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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प्रतिमा, कौशाम्बी में पांच महिने और पच्चीस दिन का अभिग्रह धारण; वारह तेले और दो सौ उनतीस बेले किये । इस प्रकार भगवान् ने 12) वर्षो की घनघोर साधना में कभी भी एक उपवास या नित्य भक्त नहीं किया। इस प्रकार समस्त तपश्चर्या जलरहित की । 12) वर्षो में कुल 349 दिन आहार ग्रहण किया। शेष 4515 दिन तपश्चर्या की । आचारांग के अनुसार भगवान् ने दशमभक्त आदि तपश्चर्याएं भी की थीं" । महान् उपसर्गो को जीतते हुए और छद्मस्थ रूप में विचरण करते हुए प्रभु वीर ऋजुबालिका नामक नदी के पास जृंभक गांव में पधारे। प्रभु का कैवल्यज्ञान और संघोत्पत्ति
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जृंभक ग्राम के बाहर ऋजुबालिका नदी के तट पर श्यामाक नामक गाथापति का खेत था । उसमें सुविस्तृत शालवृक्ष था । उस तरुतल के नीचे बेले का तप करके उत्कटिक आसन से प्रभु आतापना लेने लगे। वहां विजय मुहूर्त में शुक्लध्यान में रहते हुए, क्षपक क्षेणि चढ़ते हुए वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, चन्द्र जव हस्तोतर (चित्रा) नक्षत्र में आया तब चतुर्थ प्रहर में प्रभु को कैवल्यज्ञान उत्पन्न हुआ। उसी समय इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए । उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर देखा - अहो ! प्रभु वीर को कैवल्य ज्योति प्राप्त हुई है। इन्द्रों ने देवों को सूचित किया कि जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के चरम तीर्थकर प्रभु वीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। तब बहुत सारे देव भूमण्डल पर आये और सब देवता हर्ष विभोर हो गये । उस हर्षातिरेक से कोई नृत्य करने लगा, कोई हंसने लगा, कोई गाने लगा, कोई कूदने लगा, कोई सिहंवत् गर्जना करने लगा, कोई हस्तीवत् चिंघाड़ने लगा. कोई रथ की तरह आवाज करने लगा, कोई सर्प की तरह फुफकारने लगा। इस तरह अनेक प्रकार की चेष्टाएं देवगण करने लगे । तदनन्तर देवों ने तीन किल्ले वाले और प्रत्येक किल्ले के चार-चार द्वार वाले समवशरण की रचना की। प्रभु ने केवलज्ञान से जाना कि यहां कोई जीव सर्पविरति चारित्र अंगीकार करने वाला नहीं है तथापि अपना
कल्प जानकर समवशरण में विराजे और वहां धर्मदेशना दी। प्रभु की प्रथम देशना में मात्र देव होने से किसी ने कोई त्याग-प्रत्याख्यान नहीं