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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 234 से कहा- सिद्धार्थ प्रभु के कानों में खीलें हैं। किसी पापी ने नरक से भी भय नहीं खाते हुए इस महापुरुष के कानों में शल्य ठोके हैं। इनके शरीर में भयंकर वेदना हो रही है अतः इन शल्यों को जल्दी निकालना चाहिए। तब खरक वैद्य ने कहा- प्रभु तो अपकारी पर दया करने वाले, अपने शरीर की अपेक्षारहित हैं। तब मैं उनकी चिकित्सा कैसे करूं? यह समझ नहीं आ रहा है।
तब सिद्धार्थ बोला- अरे मित्र, तूं बात मत कर, बस जल्दी से प्रभु की चिकित्सा कर। मुझे बहुत पीड़ा हो रही है।
इतने में ही प्रभु तो वहां से निकलकर बाहर उद्यान में पधार गये और कायोत्सर्ग करके ध्यान में स्थित हो गये। इधर सिद्धार्थ और खरक वैद्य औषधादि लेकर उद्यान में पहुंचे। वहां पहुंचकर खरक वैद्य ने प्रभु के पूरे शरीर पर तेल लगाया। पुनः चम्पी करने वाले पुरुषों से मर्दन करवाया और तब बलिष्ठ पुरुषों ने प्रभु की समस्त संधियां शिथिल कर दी तब उस खरक वैद्य ने संडासी से दोनों कानों की दोनों शलाकाएं एक साथ खींची। रुधिर सहित दोनों शलाकाएं निकल गयीं। उन कीलों को खींचते समय प्रभु को अपार वेदना हुई और उसी वेदना के कारण पृथ्वी को कम्पायमान करने वाली भयंकर चीस प्रभु के मुंह से निकली। उस समय खरक वैद्य ने संरोहिणी औषधि कान पर लगायी और वन्दन-नमस्कार करके सिद्धार्थ वणिक और खरक वैद्य स्वस्थान को लौट गये । वह ग्वाला मरकर सप्तम नरक का नैरयिक बनाए । प्रभु के उस भयंकर (भैरव) नाद से उस उद्यान का नाम महाभैरव नाम से प्रख्यात हुआ। प्रभु महावीर को जो-जो उपसर्ग हुए उनमें कटपूतना के द्वारा शीत का उपसर्ग जघन्य महान् उपसर्ग था। मध्यम उपसर्गों में संगम के कालचक्र का उपसर्ग विशिष्ट उपसर्ग था। और उत्कृष्ट उपसर्गों में कानों की शलाकाएं निकालना अत्यन्त उत्कृष्ट था। प्रभु का उपसर्ग ग्वाले से प्रारम्भ हुआ और अन्तिम उपसर्ग भी ग्वाले का था।
__प्रभु ने तपश्चर्या में 9 चातुर्मासिक तप, छह द्विमासिक तप, वारह मासिक तप, बहत्तर अर्द्धमासिक तप, एक छह मासिक तप, दो त्रैमासिक तप, दो डेढ़ मासिक तप, दो अर्धमासिक तप, तीन भद्रादिक