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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
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अभिग्रह नहीं फलने से प्रभु बिना कुछ लिए खाली ही लौट जाते हैं । नन्दा स्वयं को धिक्कारने लगी- अहो! मैं कैसी अभागन हूं। मेरे घर से प्रभु बिना कुछ लिए लौट गये। आज मन की मन में रह गई । इस प्रकार बोलती हुई पश्चाताप करती है । तब नन्दा की एक दासी ने कहा- स्वामिनी! ये देवार्य तो प्रतिदिन ऐसे ही भिक्षा लिए बिना प्रत्येक घर से लौट रहे हैं। इनको खाली लौटते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया है। तब नन्दा ने सोचा कि भगवान किसी भी घर से प्रासुक अन्न भी नहीं लेते, खाली लौटते हैं, इसका तात्पर्य यह है कि प्रभु ने कोई अभिग्रह धारण कर रखा है लेकिन अभिग्रह क्या है? वह जान लेना चाहिए। इस प्रकार प्रभु की चिन्ता में नन्दा आनन्दरहित हो गयी । उसी समय सुगुप्त मंत्री आया और उसे चिन्ता करती हुई देखकर कहानन्दे! क्या बात है, क्या किसी ने तुम्हारी अवमानना की है ? अथवा मैंने तुम्हारा कोई अपराध किया है जिस कारण तुम म्लान मुख वाली हो रही हो ? तब नन्दा ने कहा- स्वामिन्! ऐसी कोई बात नहीं है लेकिन आज भगवान महावीर मेरे यहां से भिक्षा लिए बिना खाली लौट गये इसका मुझे बड़ा खेद है। प्रभु तो अपने नगरं में प्रतिदिन कहीं-न-कहीं भिक्षा के लिए जाते हैं लेकिन सदैव ही खाली लौट जाते हैं, उनके कोई विशिष्ट अभिग्रह लिया हुआ है। आप उनके अभिग्रह का पता लगाओ तभी जानूंगी कि आप बुद्धिमान मंत्री हो । तब सुगुप्त ने कहाप्रिये ! मैं ऐसा प्रयास करूंगा कि शीघ्र ही भगवान का अभिग्रह जान पाऊँ । उसी समय मृगावती रानी की विजया नाम की छड़ीदार स्त्री वहां बाहर खड़ी - खड़ी सुगुप्त और नन्दा की वार्ता श्रवण कर रही थी । उसने सारी वार्ता अपनी स्वामिनी महारानी मृगावती से कह डाली। उसे श्रवण कर मृगावती महारानी को तत्काल खेद उत्पन्न हुआ। वह अत्यन्त उदास होकर बैठ गयी। इधर राजा शतानीक राज्यकार्य से निवृत्त होकर महलों में पधारे। रानी को म्लान मुख देखा। पूछा- क्या हुआ महारानी ? तब भृकुटी टेढ़ी कर महारानी बोली- राजन् ! नृपति तो देश-विदेश के लोगों का खयाल रखते हैं लेकिन आप तो अपने शहर में आने वालों का भी ध्यान नहीं रखते। आप तो राज्य - सुख में प्रमादी बन गये हैं। क्या आप जानते हैं कि त्रिलोकीनाथ प्रभु महावीर हमारे
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