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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 220 थी। इसी कोशाम्बी में पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रभु वीर का पदार्पण हुआ। पधारते ही प्रभु ने एक विशिष्ट अभिग्रह धारण किया कि द्रव्य से उड़द के बाकुले हों, शूर्प (छाजले) के एक कोने में हों, क्षेत्र से दाता का एक पैर देहली के अन्दर व एक पैर बाहर हो, काल से भिक्षाचरी की अतिक्रान्त बेला हो, भाव से राजकन्या हो, दासत्व प्राप्त हो, शृंखलाबद्ध हो, सिर मुंडित हो, रुदन कर रही हो, तीन दिन की भूखी हो, ऐसा संयोग मिले तो मुझे भिक्षा लेना कल्पता है, अन्यथा नहीं।
जिनदास ने अपनी आवश्यक चूर्णि में प्रभु के अभिग्रह में ‘रोयमाणी' लिखा है जिसका तात्पर्य है वह बाला रुदन कर रही हो जबकि आवश्यक मलयगिरी में जहां अभिग्रह का वर्णन है वहां रोयमाणी नहीं है | आवश्यक चूर्णि और आवश्यक मलयगिरी में यह स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान ने ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की कि यदि यह अभिग्रह फलित होगा तो ही मैं भिक्षा ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं जबकि श्री चौथमलजी म. सा., देवेन्द्र मुनि ने ऐसा उल्लेख किया है कि भगवान ने ऐसी प्रतिज्ञा ग्रहण की कि यदि यह अभिग्रह फलेगा तो मैं भिक्षा लूंगा अन्यथा छह मास तक भिक्षा नहीं लूंगा"।
ऐसा घोर अभिग्रह धारणकर, भगवान प्रतिदिन भिक्षा के समय ऊँच, नीच घरों में गोचरी के लिए पधारने लगे परन्तु अभिग्रह फलित नहीं होने से कोई भिक्षा देता तो प्रभु ग्रहण नहीं करते, खाली हाथ लौट जाते। नगरवासी प्रतिदिन पश्चात्ताप करते कि ओह! हमारा कैसा दुर्भाग्य है कि प्रभु पधारते हैं लेकिन उनके अनुकूल आहार नहीं मिलने से पुनः खाली लौट जाते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन भिक्षा के लिए गमन करते हुए प्रभु को चार माह व्यतीत हो गये लेकिन अभिग्रह नहीं फलने से प्रभु को भिक्षा नहीं मिल पाई।
तदनन्तर एक बार प्रभु सुगुप्त मंत्री के घर भिक्षा हेतु पधारे। वहां मंत्रीपत्नी नन्दा ने दूर से भगवान को आते हुए देखा । अत्यन्त हर्षित होती हुई वह सामने आई और कहने लगी आज मेरा प्रबल सौभाग्य है कि आज तीर्थंकर भगवान मेरे द्वार पर आये हैं। महान पुण्योदय से यह संयोग मिला है- ऐसा बोलती हुई प्रभु को जो-जो प्रासुक पदार्थ थे उनको ग्रहण करने का निवेदन करती है, परन्तु