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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 212 (क) तत्थत्थि परमसड्ढो जिणदत्तो जो जाणम्मि विक्खाओ। विहवक्खएण सेट्टिपयचाइओ जिन्नसेहि त्ति। महावीर चरियं (नेमिचन्द); 1144 (ख) महावीर चरियं; गुणचन्द्र; गाथा 7-11, पृ. 233 (ग) परमश्रावक स्तत्र जिनदत्ताभिधोऽवसत्।
दयावान् विश्रुतो जीर्णश्रेष्ठीति विभवक्षयात्। त्रिषष्टि; 10/4/346 महावीर चरियं, गुणचन्द्र, पृ. 233 (क) महावीर चरियं; गुणचन्द्र; पृ. 233 (ख) त्रिषष्टि., 10/4/356-358 लोकैश्च पृष्टोऽभिनवश्रेष्ठी माय्येवमब्रवीत् । स्वयं मया पायसेन पारणं कारितः प्रभु । त्रिषष्टि; 10/4/360 (क) महावीर चरियं; गुणचन्द्र; पृ. 234 (ख) खणमेत्तं न सुणन्तो दुन्दुहिसदं तु जइ सुपरिणामो।
आरूहिय खवगसेढिं ता केवलमेव पावन्तिो। महावीर चरियं; नेमिचन्द्र; पृ. 1162 (ग) त्रिषष्टि श्लाका पुरुष चारित्र; पुस्तक 7; पृ. 87-88