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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 207 और प्रजा ने अभिनव श्रेष्ठि की स्तुति की।
जब जीर्ण सेठ ने अहोदान-अहोदान की ध्वनि सुनी तो वह स्तम्भित रह गया। अहो! प्रभु ने तो अन्यत्र कहीं पारणा कर लिया है, मैं निर्भागी चार माह तक भावना भाता रहा लेकिन मेरी प्रबल अन्तराय, प्रभु घर नहीं पधारे। पुण्यहीन के यहां पर पुण्यवान पुरुष कैसे पधार सकते हैं। इस प्रकार अत्यधिक पश्चात्ताप करने लगा। शुभ भाव, शुभ अध्यवसायों से उस जीर्ण सेठ ने उस समय आगामी जन्म के बारहवें देवलोक के देव के रूप में आयुष्य बन्ध किया।
इधर पारणा करके प्रभु तो वहां से विहार कर गये और उसी समय उद्यान में भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य, जो केवलज्ञान के धारक थे, पधारे। तब राजा और प्रजा उनको वन्दन करने हेतु गये। वन्दन-नमस्कार करके पूछा हमारे नगर में प्रबल पुण्य का उपार्जन करने वाला कौन है? तब केवली भगवान ने कहा- जीर्ण सेठ । राजा आश्चर्य से बोले- जीर्ण सेठ..........! उसने तो दान भी नहीं दिया तब कैसे प्रबल पुण्य का उपार्जन कर लिया। तब केवली भगवान बोले भाव से तो जीर्ण सेठ ने प्रभु को पारणा करवाया और उसने उन्हीं भावों से बारहवें देवलोक में जन्म लेने का पुण्य उपार्जन कर लिया यदि वह दो घड़ी देव-दुन्दुभि नहीं सुनता तो उसे केवलज्ञान उसी समय प्राप्त हो जाता | नवीन श्रेष्टि ने भावरहित प्रभु को दान दिया उसने केवल मुहरादि रूप लौकिक फल को ही प्राप्त किया। इस प्रकार उत्तर श्रवण कर विस्मयान्वित होकर राजा और प्रजा लौट गये।
संदर्भः साधनाकाल का एकादश वर्ष, अध्याय 21 1. पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येक प्रहरचतुष्टय कायोत्सर्गकरणरूपा, अहोरात्रइयमानेति
स्थानांग; टीका अभयेदव सूरि; प्रथम भाग; पत्र 65-2 (क) आवश्यक नियुक्ति; मलयगिरिः पृ. 288 (ख) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 300 महाभद्राऽपि तथैव, नवर महोरात्रकायोत्सर्गरूपा अहोरात wit-i
स्थानांग; टीका अभयेदव सरिः प्रथम भाग ::