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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 199 नृत्य भंगिमाएं प्रस्तुत करने लगीं। वे अपने वस्त्र-विन्यास, अंग-विन्यास, तीव्र कटाक्ष और कामुक चेष्टाओं द्वारा प्रभु को विचलित करने लगीं। वे प्रणय निवेदन करने लगीं- अरे! वीतराग स्वामिन! आपका शरीर पर राग नहीं तो यह शरीर हमें क्यों नहीं अर्पण कर देते हो, कामदेव से हमारी रक्षा क्यों नहीं करते? अब तो हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। ऐसा बारम्बार प्रेमालाप करने पर भी प्रभु ध्यान से क्षणिक भी विचलित नहीं हुए।
इस प्रकार एक रात्रि में उस संगम देव ने कायोत्सर्ग में स्थित प्रभु को बीस महान उपसर्ग दिये । उपसर्ग से परिपूर्ण रात्रि व्यतीत हो गयी। प्रातःकाल होने पर उस संगम देव ने विचार किया कि मैंने सम्पूर्ण रात्रि में मुनि को निरन्तर उपसर्ग दिये लेकिन ये महात्मा जरा भी विचलित नहीं हुए अब यदि इनको विचलित किये बिना यों ही स्वर्ग में लौट गया तो मेरी प्रतिज्ञा भ्रष्ट होगी इसलिए कुछ समयपर्यन्त यहां रहकर इनको विचलित करके ही मैं यहां से लौटूंगा। इस प्रकार दृढ़ निश्चय संगम ने कर लिया।
. प्रातःकाल होने पर सूर्य की किरणों से मार्ग व्याप्त होने पर युग मात्र भूमि का अवलोकन करते हुए प्रभु बालुका ग्राम की तरफ पधारने लगे तब मार्ग में उस संगम ने पांच सौ चोरों की एवं रेत के सागर की तरह रेत की विकुर्वणा की। वे पांच सौ चोर हे मामा! हे मामा! ऐसा जोर-जोर से बोलते हुए, ऐसा कसकर आलिंगन करते हैं कि पर्वत हो तो वह भी चूर-चूर हो जाये लेकिन प्रभु तो समता के सागर थे। वे समभाव से उस गरल को भी पी गये। तदनन्तर प्रभु रेत में चलने लगे। रेत इतनी गहरी थी कि उनके घुटने तक शरीर रेत में धंस जाता फिर भी अक्षुभित प्रभु उस रास्ते में चलने लगे और कष्टसहिष्णु भगवान बालुका ग्राम में पधार गये ।
वहां बालुका ग्राम में भगवान् पारणा करने हेतु भिक्षा के लिए पधारे तब उसने भगवान की दृष्टि ऐसी विकृत की कि वहां के लोग प्रभु को मारने लगे। वहां से प्रभु सुभौम ग्राम गये। वहां भी उसने ऐसा ही किया। तब वहां से भगवान क्रमशः सुक्षेत्र, मलय, हस्तिशीर्ष, जहां-जहां पधारे, वहां-वहां अपने जघन्य कृत्यों से संगम प्रभु को